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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-२-०-०॥ पांचवे उद्देशक में- स्वजन, धन, सन्मान, एवं भोग सुख के त्यागी साधु संयम एवं शरीर का पालन-रक्षण के लिये, अपने लिये आरंभ-समारंभ में प्रवृत्त गृहस्थ लोक की निश्रा में विचरें... अर्थात् गृहस्थों ने दीये हुए निर्दोष आहारादि से अपने संयम जीवन का निवाह करें... // 5 // 6- छठे उद्देशक में- लोकनिश्रा में विचरनेवाले साधु इस लोक में पूर्व एवं पश्चात् परिचित या अपरिचित जीवों के उपर रागादि ममत्व न करें... किंतु जलकमल की तरह निर्लेप रहें इत्यादि... नाम-निष्पन्न निक्षेप में - लोक-विजय ऐसे दो पद हैं अतः लोक तथा विजय इन दोनों पदों के निक्षेप करें... और सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप में-निक्षेप योग्य सूत्र में जितने भी पद हैं, उन सभी पदों का निक्षेप करें... सूत्र में कहे गये “मूल" शब्द का अर्थ “कषाय" कहा गया है, अतः कषाय पद का निक्षेप करें... इत्यादि नामनिष्पन्न निक्षेप तथा भविष्य में आनेवाले सूत्रालापक-निष्पन्न निक्षेप का संक्षिप्त स्वरूप कहा, अब कहने योग्य निक्षेप के पद नियुक्तिकार स्वयं हि गाथा से कहते हैं... नि. 164 . लोक, विजय, गुण, मूल और स्थान इन पदों का निक्षेप करें क्योंकि- संसार का मूल कषाय है... वह इस प्रकार- संसार-वृक्ष के नरक-तिर्यंच मनुष्य एवं देव यह चार गति स्कंध थड है, गर्भनिषेक, कलल, अर्बुद, मांसपेशी आदि तथा जन्म जरा एवं मरण स्वरूप शाखा-डालीयां हैं... तथा दरिद्रता आदि अनेक संकट स्वरूप पत्तों की गहनता = गीचता है, और प्रियवियोग, अप्रियसंयोग, धननाश, एवं अनेक व्याधि-रोग-चिंता स्वरूप सेंकडो पुष्प हैं, शारीरिक, मानसिक आदि अति तीव्र दुःखों के समूह हि फल है। ___ऐसे संसार-वृक्ष का प्रथम कारण कषाय हैं... कष = संसार और आय याने लाभ = कषाय याने संसार की प्राप्ति- इस प्रकार यहां जितने नामनिष्पन्न निक्षेप में तथा जितने भी सूत्रालापक-निष्पन्न निक्षेप में निक्षेप करने योग्य पद हैं वे सभी नियुक्तिकार श्री भद्रबाहुस्वामीजी मित्र की तरह सहयोगी बनकर विवेक से क्रमशः कहते हैं... नि. 165 लोक, विजय, अध्ययन यह नामनिष्पन्न निक्षेप के पद है, और गुण, मूल, स्थान यह सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप के पद हैं... उद्देश के अनुसार निर्देश करना चाहिये इस न्याय से लोक एवं विजय के निक्षेप कहते हैं...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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