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________________ 4 1 -2-0-0" श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है इन शस्त्र से पृथ्वीकाय आदि के वध से कर्मबंध तथा पृथ्वीकाय आदि का वध न करने स्वरूप विरति चारित्र से संवर एवं निर्जरा...इत्यादि प्रतिपादन करने के बाद, अब... यह चारित्र संपूर्ण यथाख्यात कैसे प्राप्त हो ? यह बात अब इस द्वितीय अध्ययन में कही जाएगी... वह इस प्रकार- शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन के सूत्र एवं अर्थ को जाननेवाले, पृथ्वीकाय आदि एकेंद्रिय जीवों की श्रद्धावाले और उनकी रक्षा के परिणामवाले तथा सभी प्रकार के (18000) शीलांग -विकल्प से विशुद्ध और साधु-पद के योग्य होने से पांच महाव्रत का स्वीकार करनेवाले साधु हि राग आदि कषायलोक अथवा शब्द आदि विषयलोक के ऊपर विजय पा शकता है, यह बात इस अध्ययन में कही जाएगी... तथा नियुक्तिकार श्री भद्रबाहुस्वामीजी अध्ययनपद का अर्थाधिकार शस्त्रपरिज्ञाअध्ययन में कह चुके हैं... जैसे कि “लोक जिस प्रकार बद्ध होता है तथा जिस प्रकार मुक्त होता है" इत्यादि वाक्य के संबंध से आये हुए इस दुसरे अध्ययन के चार अनुयोगद्वार होते हैं, उनमें सूत्र का अर्थकथन हि अनुयोग है... उसके द्वार = उपाय अर्थात् सूत्र की व्याख्या के अंग चार है... और वे उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय.... वहां उपक्रम के दो भेद है... 1. शास्त्र को अनुसरने वाला शास्त्रीय... 2. लोक को अनुसरनेवाला लौकिक... तथा निक्षेप भी तीन प्रकार के हैं 1. ओघनिष्पन्न... 2. नाम निष्पन्न... 3. सूत्रालापकनिष्पन्न-निक्षेप... अनुगम के दो प्रकार है... 1. सूत्रानुगम... 2. नियुक्ति-अनुगम... तथा नैगम आदि नय सात हैं.... इन उपक्रमादि चार अनुयोग द्वार में शास्त्रीय उपक्रम के अंतर्गत अर्थाधिकार आता है... और उसके दो भेद है... 1. अध्ययनार्थाधिकार... 2. उद्देशार्थाधिकार... उनमें अध्ययन अर्थाधिकार शस्त्रपरिज्ञा-अध्ययन में पहले हि कह चुके हैं, और उद्देश अर्थाधिकार अब नियुक्तिकार भद्रबाहुस्वामीजी स्वयं हि यहां कहतें हैं.... नि. 163 1- प्रथम-उद्देशार्थाधिकार में कहते हैं कि- मात-पितादि स्वजन में अनुराग न करें...॥१॥ 2- द्वितीय-उद्देशक में-संयम में दृढता रखें... अर्थात् विषय और कषाय आदि में आदर न रखें इत्यादि...॥२॥ 3- तृतीय-उद्देशक में- उत्तम जाति एवं उत्तम कुल आदि में उत्पन्न हुआ साधु, कर्मो की विविधता को जानकर मद के सभी स्थानों में मद न करें... और इस उद्देशक में अर्थ याने धन की असारता भी कही जाएगी...॥३॥ चतुर्थ उद्देशक में- भोग-सुख में राग न करें... तथा इस उद्देशक में काम-सुख के भोगीओं को होनेवाले अपाय-संकट भी कहे जाएंगे... // 4 //
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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