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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी- टीका 1-5-4 - 4 (172) // 431 ' तथा यह स्त्रीजनों का संबंध हि कलह याने रण-संग्राम (युद्ध) के हेतु कारण होतें हैं... अथवा कलह याने क्रोध तथा आसंग याने राग अर्थात् राग-द्वेष के कारण होते हैं... अत: इस जन्म में एवं जन्मांतर में दु:खों की प्राप्ति का कारण स्त्रीजनों का संग हि है, ऐसा जानकर अपने आपकी आत्मा को स्त्रीजनों के संग का त्याग करने का आदेश करें... यह बात तीर्थंकर परमात्मा के उपदेश अनुसार हे जंबू ! मैं (सुधर्मस्वामी) तुम्हें कहता हुं... तथा जो मुमुक्षु पुरुष स्त्रीसंग का त्यागी है, वह स्त्रीजनों के वस्त्र एवं अलंकार आदि की कथा-वार्ता न करें तथा शृंगारकथा भी न करें... इस प्रकार से हि स्त्रीजनों का त्याग हो शकता है... तथा नरकगति के मार्ग समान एवं स्वर्ग तथा अपवर्ग (मोक्ष) के मार्ग में अर्गला (भुंगल) समान स्त्रीजनों के अंग एवं उपांगो को भी न देखें... क्योंकि- स्त्रीजनों के अंगोपांगों को देखने से पुरुष, को महान् अनर्थ (कष्ट) होता है... कहा भी है कि- पुरुष तब तक हि सन्मार्गमें रहता है, इंद्रियों को संयम में रखता है, लज्जा एवं मर्यादा धारण करता है, और गुरुजनों का विनय भी तब तक हि करता है, कि- जब तक स्त्रीजनों के दृष्टि-बाण पुरुष के हृदय के उपर नहि पडतें... अर्थात् स्त्रीजनों के दृष्टि-बाण लगने से पुरुष सन्मार्ग आदि पवित्र मर्यादाओं को धारण नहि कर शकतें... तथा नरक के हेतु स्वरूप स्त्रीजनों के साथ एकांत याने निर्जन स्थान में वार्तालाप-विचार परामर्श भी साधु न करें... और यहां तक कहते हैं कि- अपनी भगिनी (बहन) आदिके साथ भी एकांत में वार्तालाप न करें... क्योंकि- मोहनीय कर्म दुर्जय है, और इंद्रियां दुर्दम हैं... अन्यत्र भी कहा है कि- माता, बहन, पुत्री आदि के साथ भी एक आसन पर न बैठे... क्योंकिइंद्रियां बलवान् हैं, पंडित याने विद्वान् पुरुष भी इस परिस्थिति में इंद्रियों के विकार में मतिमूढ होता है... तो फिर अज्ञ के लिये तो क्या कहना ? इत्यादि... तथा पापाचरण में परायण ऐसे स्त्रीजनों में ममत्व भी न रखें... तथा शृंगार-अलंकारादि मंडन क्रिया भी न करें... तथा स्त्रीजनों की सेवा (वैयावृत्त्य) भी न करें... अर्थात् स्त्रीजनों की बाबत में पुरुष अपने काययोग का संपूर्णतया संवर करें- यह यहां सारांश है... तथा शुभ अनुष्ठान को लुटनेवाली स्त्रीयों के साथ वार्तालाप (बातचीत) भी न करें... अर्थात् स्त्रीजनों के साथ वाणी का भी संपूर्णतया संयम रखें... तथा आत्मा में रहे हुए मन (अंत:करण) को संयम में रखें अर्थात् स्त्रीओं के अंगोपांग, हावभाव एवं विषय=भोग का मन से भी चिंतन (विचार) न करें... इस प्रकार मनोयोग का भी सूत्रार्थ के परिशीलन के द्वारा संवर करें... . अर्थात् सदा पाप एवं पाप के कारणभूत कर्मो का त्याग करें... और मौन याने मुनिभाव
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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