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________________ 432 1 -5-4-4 (172) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अथवा पंचाचार स्वरूप संयमानुष्ठान से अपनी आत्मा को सुवासित करें... ऐसा हे जंबू ! मैं (सुधर्मस्वामी) तुम्हें कहता हुं... v सूत्रसार : . विवेकशील साधु दीर्घदर्शी एवं ज्ञान सम्पन्न होता है। वह अतीत, अनागत एवं वर्तमान को तथा कर्म फल को भलि-भांती देखने वाला है। उसे संयम को सरक्षित रखने एवं संयम के द्वारा समस्त कर्म बन्धनों को तोड़कर मुक्त होने के रास्ते का भी परिज्ञान है। वह उपशान्त प्रकृति वाला है; एवं समिति-गुप्ति से युक्त है; इसलिए वह संयम-निष्ठ मुनि कभी अनुकूल या प्रतिकूल परीषह उत्पन्न होने पर भी संयम से विचलित नहीं होता। उसे कोई भी स्त्री एवं भोगोपभोग के साधन अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकते। क्योंकि- उसने आत्मा के अनन्त सौन्दर्य एवं ऐश्वर्य को जान लिया है, अत: आत्मा के हैश्चर्य एवं सौंदर्य के सामने दुनियां के सभी पदार्थों का सौन्दर्य एवं ऐश्वर्य निस्तेज फीका-सा प्रतीत होता है। स्त्री एवं भोग-विलास के साधनों के उपस्थित होने पर गीतार्थ-साधु सोचता है किमैंने बड़ी कठिनता से सम्यक्त्व को एवं संयम-साधना को प्राप्त किया है। इन विषय-भोगों को तो मैं अनेक बार भोग चुका हूँ, फिर भी इससे आत्मा को तृप्ति नहीं हुई। इनके कारण मैं बार-बार संसार में परिभ्रमण करता रहा हूँ। इस संसार बन्धन से छूटने का यह साधुजीवन का अवसर मुझे कर्मों के क्षयोपशम से मिला है- अतः अब संसार में भटकाने वाले विषयभोग मुझे आकर्षित नहीं कर सकता। संसार का रूप-सौन्दर्य मुझे पथ भ्रष्ट नहीं कर सकता। ये स्त्रियें एवं भोगोपभोग के साधन बड़े-बड़े तत्त्ववेत्ताओं को भी मोह मुग्ध बनाते हैं, उनके मोहजाल में आबद्ध साधु पहिले तो संयम से भ्रष्ट होता है और बाद में वह उनका दास होकर जीवन व्यतीत करता है। इसलिए सब से अच्छा यह हि है कि- मैं इन विषयविकारों एवं भोगों का स्वीकार ही न करूं। इस प्रकार सोच-विचारकर प्रबुद्ध पुरुष भोगेच्छा का त्याग कर देता है, अतः भोगों की ओर आकर्षित ही नहीं होता। तीर्थकरों ने स्त्री-काम-भोगों को भाव बन्धन कहा है। मोह कर्म के उदय से मनुष्य वासना के प्रवाह में बहता है, अतः साधु को गुरु के अनुशासन में रहकर मोह कर्म का क्षय करने का प्रयत्न करना चाहिए और वासना एवं विकृति को रोकने के लिए कामोत्तेजक आहार एवं ऐसे अन्य साधनों का त्याग करना चाहिए। विषयों से विरक्त रहने के लिए साधु को नीरस भोजन करना चाहिए। एक गांव में अधिक समय तक रहें, किंतु ग्रामनुग्राम विचरना चाहिए, आतापना लेनी चाहिए, एकान्त स्थान में या पर्वत के शिखर पर कायोत्सर्ग करना चाहिए तथा विविध तपश्चर्या करते रहना चाहिए।
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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