________________ 430 1 -5-4-4 (172) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन में या अल्प-असार आहार से इंद्रियां निर्बल होती है... अतः उणोदरी तप करना चाहिये... यदि अंत-प्रांत असार आहार ग्रहण करने से भी इंद्रियां शांत न हो, अर्थात् मोह का उपशम न हो तब वाल-चने आदि का बत्तीस (32) कवल प्रमाण रूक्ष आहार ग्रहण करें... ऐसा करने पर भी यदि मोह का उपशम न हो तब कार्योत्सर्ग (काउस्सग्ग) आदि से काया को कष्ट दें... अर्थात् खडे खडे काउस्सग्ग करके चित्त को धर्मध्यान में स्थिर करें... तथा शीतकाल एवं उष्णकाल में काउसग्ग के द्वारा शीत (ठंडी) एवं ताप (गरमी) से काया को कष्ट दें... यदि ऐसा करने से भी मोह का उपशम न हो; तब ग्रामनुग्राम विहार करें... ___सामान्य से निष्कारण विहार का निषेध है तो भी मोह के उपशम के लिये ग्रामानुग्राम विहार करें... अधिक क्या कहें ? यहां सारांश यह है कि- जिस जिस उपाय से मोह का उपशम हो, विषय भोग की इच्छा निवृत्त हो; उन उन उपायों का आदर करें... अंत में आहार का सर्वथा त्याग (अनशन) करके शरीर का विनाश करें किंतु स्त्रीजनों में कभी भी मन (इच्छा) न करें... अर्थात् स्त्रीजन में प्रवृत्त मन का निवारण करें... ऐसा करने से दो प्रकार के काम (इच्छा) का दूरसे हि त्याग हो जाता है... कहा भी है कि- हे काम ! मैंने तुझे पहचान लिया है... तुं निश्चित हि संकल्प-विकल्पों से हि उत्पन्न होता है... अत: मैं संकल्प-विकल्प हि नहिं करुंगा... अतः तुं उत्पन्न हि नहि हो शकेगा... स्त्रीजन में मन (इच्छा) न करने का कारण यह है कि- परमार्थ दृष्टि के अभाव में स्त्रीजन का संग करनेवालोंको सर्व प्रथम यह चिंता रहती है कि- इनका संग प्राप्त हो और सदा बना रहे... किंतु स्त्रीजन का संग सदा बनाये रखने के लिये पुरुष को धन उपार्जन करना होता है, और धन प्राप्ति के लिये कृषि या व्यापार-व्यवसाय करनेवाले पुरुषों को क्षुधा-तृषाठंडी-गरमी (ताप) आदि अनेक प्रकार के परीषह - कष्ट आदि के द:ख स्वरूप दंड यहां उठाना होता है... इतने कष्ट स्त्री की प्राप्ति के पूर्व याने स्त्री संभोग के पूर्व हि सहन करने होते हैं, और स्त्रीजन के संग (संभोग) होने के बाद विषय भोगों के उपभोग से होनेवाले कर्मबंध, और उन कर्मो के उदय में नरक आदि गति में उत्पन्न होने पर छेदन-भेदन आदि अनेक दुःख स्वरूप कठोर स्पर्श (देह-पीडा) होते हैं... अथवा स्त्रीजन के संभोग-भोग में प्रवृत्त होनेवाले पुरुष को प्रथम दंड याने कृषि-व्यापार आदि कष्ट और बाद में नरकादिगति में हाथ-पैर आदि अंगोपांग के छेदन-भेदनादि दुःख सहन करने होते हैं... अथवा प्रथम स्पर्शभोग और बाद में नरकादि गति में दंड... अथवा प्रथम दंड याने ताडन-तर्जनादि कष्ट और बाद में संबाधन, आलिंगन, चुंबन आदि स्पर्श... वह इस प्रकार- जैसे कि- राजकुमारी के स्पर्श भोग को चाहनेवाले वणिक् पुत्र इंद्रदत्त को प्रथम ताडनतर्जन आदि दंड प्राप्त हुआ और बाद में स्पर्श भोग प्राप्त हुआ... और ललितांग को प्रथम स्पर्श भोग एवं बाद में विभिन्न परिताप-संताप आदि के दंड...