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________________ 426 // 1-5-4-3(171), श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - गुरुजी के आदेश को करनेवाले साधु (भिक्षु) इस प्रकार के आचरणवाले होतें है... जैसे कि- यतना से अभिक्रामन् याने जाते हुए... प्रतिक्रामन् याने वापस लौटते हुए... संकुचन् याने हाथ, पैर आदि का संकोच करते हुए... प्रसारयन् याने हाथ पैर आदि अवयवों को फैलाते हुए... तथा सभी अशुभ आचरण से निवृत्त होते हुऐ... पाद (पैर) आदि अवयव एवं वस्त्रादि उपकरण का निक्षेप करने के वख्त रजोहरण आदि से भूमी का प्रमार्जन करते हुए गुरुकुलवास में रहें... तथा गुरुजी के पास विनय-मुद्रा से बैठे... और यदि इस प्रकार निश्चल न बैठ शकें तब भूमी का प्रमार्जन करके कुक्कुटी विजृभित-दृष्टांत से अवयवों का यतना से संकोचन एवं प्रसारण करें... तथा सोते समय मयूर (मोर) की तरह शयन करके निद्रा लें... तथा अन्य जीवों के वध के भय से एक पार्श्व (पडखे) सचेतन होकर सोएं... तथा निरीक्षण-प्रमार्जन करके पडखों का परिवर्तन करें... इत्यादि परिमार्जन-प्रमार्जना के द्वारा सभी आवश्यक क्रियाएं करें... इस प्रकार अप्रमत्त-भाव से पूर्वोक्त संयमाचरण-अनुष्ठान करनेवाले अप्रमत्त साधु को कभी कोइ समय गमन, आगमन, संकुचन, प्रसारण, विनिवर्तन एवं प्रमार्जन करते करते कभी कोइ अवस्था में शरीर के संग (स्पर्श) में आये हुए संपातिम आदि प्राणी (क्षुद्र जंतु) ओं में कोइक परिताप पातें हैं; कितनेक ग्लानि (खेद) पाते हैं, कितनेक के अवयवों का विनाश होता हैं... तथा कितनेक प्राणी प्राणों से वियुक्त याने मरण प्राप्त करते हैं... तब यहां कर्मबंध होने में विभिन्नता (विचित्रता) होती है... ___ जैसे कि- शैलेशी अवस्था में केवलज्ञानी को मच्छर आदि का शरीर-स्पर्श होने पर यदि मरण हो तब भी कर्मबंध के कारणों के अभाव में कर्मबंध नहि होता... तथा उपशांतमोह, क्षीणमोह एवं सयोगी केवलज्ञानीओं को कर्मबंध में स्थिति के कारणभूत कषायों के अभाव से मात्र एक समय का हि सातावेदनीय कर्मबंध होता है... तथा अप्रमत्त साधु को जघन्य से अंतर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट से अंत:कोडाकोडी सागरोपम... प्रमाण कर्मबंध होता है... तथा अनाभोग एवं उपयोग के बिना प्रवृत्ति करनेवाले प्रमत्त साधु को हाथ-पैर आदि अवयवों से प्राणीओं को पीडा होने पर जघन्य से अंतर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट से अंत: कोडाकोडी सागरोपम... किंतु अप्रमत्त से प्रमत्त की स्थिति कुछ विशेष अधिक होती है... प्रमत्त साधु को अनजान से हुए काया के संघट्टन से मात्र इस जन्म-भव संबंधित कर्मबंध होता है, कि- जो इस जन्म में क्षय हो शकता है... तथा जो प्रमत्त साधु जान बुझकर हिंसा करे, आगमोक्त कारण के सिवा यदि प्राणीओं का वध हो तब विवेक याने दशविध प्रायश्चित्त में से कोई भी एक प्रकार का प्रायश्चित लगता है, कि- जिस प्रायश्चित से कर्म का विनाश होता है... तथा वेदवित् याने तीर्थंकर परमात्मा, गणधर एवं चौदह पूर्वधर कहते हैं किं- अप्रमाद
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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