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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी - टीका 1-5-4-3 (171) 425 करके तथा उन्हें भला-बुरा कहकर अकेला विचरने लगता है। परन्तु वय एवं श्रुत से अव्यक्त होने के कारण वह संयम मार्ग पर स्थिर नहीं रह सकता। रोग आदि कष्ट उपस्थित होने पर वह घबरा जाता है। उन परीषहों को सह नहीं पाता। और परिणाम स्वरूप अनेक दोषों का सेवन करने लगता है। इस तरह आवेश के वश गच्छ से पृथक् होकर विचरने वाला साधु चारित्र से गिर जाता है। अतः अव्यक्त साधु को गुरु की सेवा में रहते हुए क्रोध आदि कषायों के वश में नहीं होना चाहिए। गुरु की सेवा में रहकर संयम का परिपालन करना चाहिए और सावधानी एवं विवेक के साथ संयम संबंधित सभी क्रियाएँ करनी चाहिऐं। और कभी भूल हो जावे तब उसका संशोधन करके उस दोष को निष्फल करने का प्रयत्न करना चाहिए। इस बात को बताते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 171 // 1-5-4-3 से अभिक्कममाणे पडिक्कममाणे संकुचमाणे पसारेमाणे विनिवट्टमाणे संपलिजमाणे, एगया गुणसमियस्स रीयओ कायसंफासं समणुचिण्णा एगतिया पाणा उद्दायंति, इहलोगवेयणविज्जावंडियं, जं आउट्टिकयं कम्मं तं परिण्णाय विवेगमेइ, एवं से अप्पमाएण विवेगं किदृइ वेयवी // 171 // II संस्कृत-छाया : स: अभिक्रामन् प्रतिक्रामन् सङ्कुञ्चन् प्रसारयन् विनिवर्तमानः संपरिमृजन्, एकदा गुणसमितस्य रीयमाणस्य कायसंस्पर्श समनुचीर्णाः एके प्राणिनः अपद्रावयन्ति / इहलोकवेदनवेद्यापतितं यत् आकुट्टीकृतं कर्म, तत् परिज्ञाय विवेकं एति। एवं तस्य अप्रमादेन विवेकं कीर्तयति वेदवित् // 171 // III सूत्रार्थ : समस्त अशुभ व्यापार भिक्षु चलते हुए, पीछे हटते हुए, हस्त पादादि अगों को संकोचते हुए और फैलाते हुए, भली प्रकार से रजोहरणादि के द्वारा शरीर के अङ्गोपांग तथा भूमि आदि का प्रमार्जन करता हुआ गुरुजनों के समीप निवास करे। इस प्रकार अप्रमत्त भाव से सम्पूर्ण क्रियानुष्ठान करते हुए गुण युक्त मुनि से यदि किसी समय चलते-फिरते हुए काय-शरीर के स्पर्श से किसी प्राणी-संपातिमादि जीव की मृत्यु हो जावे तो वह भिक्षु उस कर्म के फल को तप अनुष्ठान के द्वारा क्षय कर देवे, यह कर्म क्षय करने का विधान तीर्थंकरों ने कहा है। IV टीका-अनुवाद :
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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