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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #१-५-3-२(१६५)卐 401 को कहता हैं, वही हितकर उपदेश एक रंक-दरिद्र को भी देता है। इससे स्पष्ट है कि- भगवान की वाणी में समभाव की धारा बहती रहती है। क्योंकि- उनका जीवन हिंसा, परिग्रह आदि दोषों से ऊपर उठा हुआ है। और उन्हों ने हिंसा आदि दोषों के उत्पत्ति के कारण राग-द्वेष को क्षय कर दिया है। अत: हिंसा परिग्रह आदि दोषों से रहित व्यक्ति ही आर्य हो सकता है। यह समता एवं अपरिग्रह की साधना का मार्ग ऐसे आर्य पुरुषों द्वारा कहा गया है, कि- जिन्हों ने समभाव के द्वारा कर्म बन्ध की परम्परा का उच्छेद करके निष्कर्म बनने की ओर कदम बढ़ाया है। इससे स्पष्ट है कि- समभाव की साधना से जीवन में अहिंसा, अपरिग्रह आदि आत्म गुणों का विकास होता है और पूर्व में बन्धे हुए कर्मों का क्षय होकर आत्मा निष्कर्म बन जाता है। कर्म क्षय का यह मार्ग अन्य मत-मतान्तर में नहीं मिलता क्योंकिअन्य मत-मतान्तर में पूर्ण अहिंसा एवं अपरिग्रह की साधना को स्वीकार नहीं किया गया है। अत: उस साधना के बिना जीवन में समभाव नहीं आता और समभाव के विना कर्म का क्षय नहीं होता। इस दृष्टि से कहा गया है कि- अन्य मत-मतान्तर में बताई गई साधना से कर्म परंपरा का नाश होना दुष्कर है। इसलिए साधु को अपरिग्रह की साधना में प्रमाद नहीं करना चाहिए। और संयम का पालन करने में अपनी शक्ति-सामर्थ्य का गोपन नहीं करना चाहिए। इसी बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें है... I सूत्र // 2 // // 165 // 1-5-3-2 जे पुवुट्ठाइ नो पच्छा निवाई, जे पुव्वुट्ठाई पच्छा निवाई, जे नो पुवुट्ठायी नो पन्छा निवाई, से वि तारिसिए सिया, जे परिण्णाय लोगमण्णेसयंति // 165 // II संस्कृत-छाया : यः पूवोत्थायी न पश्चात् निपाती, य: पूवोत्थायी पश्चात् निपाती, यः न पूवोत्थायी न पश्चात् निपाती, सोऽपि तादृशः स्यात्, ये परिज्ञाय लोकं अन्वेषयन्ति. // 165 // III सूत्रार्थ : ___कुछ व्यक्ति ऐसे हैं, जो त्याग वैराग्य के साथ संयम साधना को स्वीकार करते हैं और स्वीकार करने के पश्चात् भी उसी निष्ठा के साथ उसका पालन करते हैं। अर्थात् साधना पथ से च्युत नहीं होते (गणधरवत्) तथा कुछ व्यक्ति पहिले तो वैराग्य से दीक्षित होते हैं, परन्तु पीछे से पथ भ्रष्ट हो जाते हैं (नन्दीषेण मुनि की तरह)। यहां तीसरे भंग का अभाव
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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