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________________ 02 // 1-5-3-2(165) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन होने से उसका उल्लेख नहीं किया है। तथा कुछ व्यक्ति न त्याग-वैराग्य से संयम लेते हैं और न पीछे पतित ही होते हैं। उनमें सम्यक् चारित्र का अभाव होने से उन्हें गृहस्थ तुल्य कहा है। शाक्यादि अन्य मत के साधुओं को भी चौथे भंग में समाविष्ट किया है। कुछ व्यक्ति ज्ञपरिज्ञा से जानकर दीक्षित होने पर भी लोकेषणा में संलग्न रहते हैं, इसलिए उन्हें गृहस्थ के समान कहा गया है। तात्पर्य यह है कि- भाव चारित्र के अभाव में साधु वेश होने पर भी उन्हें भाव से गृहस्थ जैसा ही कहा गया है, क्योंकि- वे गृहस्थ की तरह आरंभ-समारंभ में संलग्न रहते हैं। IV टीका-अनुवाद : ____ संसार के स्वभाव को जानने के कारण से धर्माचरण में हि तत्पर मनवाला जो प्राणी प्रव्रज्या की प्राप्ति के समय में संयमानुष्ठान के द्वारा उत्थान करता है; याने उपस्थित होता है, वह बाद में भी श्रद्धा एवं संवेगभाव से विशेष प्रकार से वर्धमान परिणामवाला संयम में स्थिर रहता है... वह सिंह की तरह निकलता है; एवं सिंह की तरह विचरता है... ऐसे गणधर आदि होते हैं... यह प्रथम भंग जानीयेगा... तथा दुसरे भंग में - प्रारंभ में संयमानुष्ठान के द्वारा उत्थान तो करते हैं; किंतु बाद में कर्मो की विचित्रता से और तथाविध भवितव्यता के कारण से निपतन होते हैं; वे नंदिषेण मुनीश्वर की तरह... और कोइक दर्शन से भी चूकतें हैं; वे गोष्ठामाहिल आदि की तरह जानीयेगा... यह द्वितीय भंग... तथा तृतीय भंग में कोइ भी नहि होतें; अतः तृतीय भंग का यहां सूत्र में ग्रहण (कथन) नहि कीया है... जैसे कि- “जे नो पुव्वुट्ठायी पच्छा निवाती' यदि उत्थान हो; तब हि निपात या अनिपात का विचार होता है... अथवा धर्मवाले के होने की स्थिति में हि धर्म का विचार कीया जाय... किंतु यहां तृतीय भंग में तो उत्थान का हि निषेध है, अतः उनके निपात का विचार कैसे हो ? अर्थात् यह तृतीय भंग नहि हो शकता... अब चौथे भंग में कहते हैं कि- जो प्राणी पूर्वकाल में उत्थित नहि हुआ और बाद में निपात भी नहि हुआ... वह अविरत गृहस्थ मनुष्य सम्यग् विरति के परिणाम के अभाव में संयमानुष्ठान के लिये उद्यम नहिं करतें, अत: उद्यम के अभाव में निपात की संभावना भी कैसे हो ? क्योंकि- निपात सदैव उत्थान के साथ अविनाभावि संबंधवाला होता है... अथवा शाक्य आदि इस चौथे भंग में जानीयेगा... क्योंकि- उनको भी, न तो उत्थान है और न तो निपात है... इस चतुर्थ भंग में गृहस्थ हि होते हैं, ऐसा कहना उचित है, क्योंकि- उनका
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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