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________________ 4001 -5-3 - 1 (164) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन शक्ति एवं सामर्थ्य के अनुसार उद्यम करें... यह बात परम करुणा से भरपूर हृदयवाले एवं परहित के हि उपदेश देने में तत्पर ऐसे श्री वर्धमानस्वामीजी ने कही है, उस उपदेश को सुनकर मैं (सुधर्मस्वामी) हे जंबू ! तुम्हें कहता हुं... v सूत्रसार : परिग्रह के दो भेद हैं-द्रव्य और भाव परिग्रह। धन, धान्यादि पदार्थ द्रव्य परिग्रह में गिने जाते हैं। और मूर्छा, आसक्ति एवं ममत्वभाव को भाव परिग्रह कहा गया है। दशवैकालिक सूत्र में परिग्रह की परिभाषा करते हुए मूर्छा को ही परिग्रह माना गया है। तत्त्वार्थ सूत्र में भी आगम की इसी परिभाषा को स्वीकार किया गया है। क्योंकि- द्रव्य परिग्रह की अपेक्षा भाव परिग्रह का अधिक महत्त्व है। यदि किसी व्यक्ति के पास धन-वैभव एवं अन्य पदार्थों का अभाव है, या अल्पता है, परन्तु उसके मन में परिग्रह की तृष्णा, आकांक्षा एवं ममता बनी हुई है, तो द्रव्य से परिग्रह अल्प हो या नहीं होने पर भी उसे अपरिग्रही नहीं कह सकते। किंतु वह व्यक्ति अपरिग्रही कहलाता है, कि- जो भाव परिग्रह का त्यागी है, जिसके मन में पदार्थों के प्रति ममता, मूर्छा एवं तृष्णा नहीं है। अत: ममत्व का त्याग करना ही निष्परिग्रही बनना है। किंतु ऐसे निष्परिग्रही व्यक्ति संपूर्ण विश्व में थोडे ही होते हैं। जो जो मनुष्य प्रबुद्धपुरुषों के वचन सुनकर और उन पर चिन्तन-मनन करके धर्म के यथार्थ स्वरूप को समझते हैं। वे मनुष्य हि परिग्रह से होने वाले दुष्परिणाम को जानकर उसका त्याग करते हैं। इससे श्रुतज्ञान का महत्त्व बताया गया है, क्योंकि- श्रुतज्ञान के द्वारा मनुष्य को पदार्थ का ज्ञान होता है, उसकी हेयोपादेयता की ठीक जानकारी मिलती है और उसके जीवन में त्याग एवं समभाव की ज्योत जगती है। समभाव साधना का मूल है, इसी के आश्रय से अन्य गुणों का विकास होता है और आत्मा कर्मों का छेदन करके निष्कर्म बनता है। अतः बुद्धिमान मुमुक्षु व्यक्ति हि प्रबुद्ध पुरुषों के आर्य वचन सुनकर समभाव एवं अपरिग्रह को स्वीकार करते हैं। ___ “समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए" का अर्थ है- यह समता रूप धर्म आर्य-तीर्थंकर भगवान द्वारा प्ररूपित है। अहिंसा अपरिग्रह आदि भी समता के ही रूप है। अहिंसक एवं अपरिग्रही-अनासक्त व्यक्ति ही शत्रु और मित्र के प्रति समभाव रख सकता है। जिसके जीवन में अहिंसा, दया. करुणा का अभाव है तथा पदार्थों को प्राप्त करने की अभिलाषा बनी हर्ड है; वह व्यक्ति किसी भी प्राणी के प्रति समभाव नहीं रख सकता। अत: हिंसा, परिग्रह आदि दोषों का त्यागी व्यक्ति ही समभाव की साधना कर सकता है। उसके मन में छोटे-बड़े का या शत्रु-मित्र का कोई भेद नहीं रहता। वह सब व्यक्तियों को समान भाव से कल्याण का मार्ग बताता है, उसकी उपदेश धारा में राजा-रंक का भेद नहीं होता। वह जो बात धनवान
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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