________________ 390 // 1 - 5 - 2 - 3 (161) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन साधन को भी व्यवस्थित रखना चाहिए। परन्तु यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि- सांधन का महत्त्व साध्य की सिद्धि के लिए है। यदि उसका उपयोग अपने लक्ष्य को साधने में नहीं हो रहा है, तो फिर उसका कोई मूल्य नहीं है। अत: शरीर का ध्यान भी संयम साधना के लिए हि है, इसलिए रोगादि कष्टों के उपस्थित होने पर साधक को आर्त, रौद्र ध्यान नहीं करना चाहिए। __परन्तु, इसका यह अर्थ भी नहीं है, कि- वह स्वस्थ होने का भी प्रयत्न न करे। साधक शारीरिक स्वास्थ्य लाभ के लिए निर्दोष औषध आदि का उपयोग कर सकता है, परन्तु इसका तात्पर्य इतना ही है कि- उस रोग से उसके मन में, विचारों में एवं आचार में किसी तरह की विकृति न आए। महावेदना का प्रसंग उपस्थित होने पर भी धैर्य एवं सहिष्णुता का त्याग नहीं करे। हर परिस्थिति में वह जिनाज्ञानुसार आत्म चिन्तन में संलग्न रहने का प्रयत्न करे। इससे पूर्व में बन्धे हुए कर्मों का क्षय होगा और अभिनव कर्मों (पाप कर्म) का बन्ध नहीं होगा। इस तरह वह एक दिन निष्कर्म बन सकेगा। अतः समभाव पूर्वक परिषहों एवं कष्टों को सहन करने से वह साधु एक दिन संपूर्ण कष्टों से मुक्त हो जाएगा। . इसलिए साधक को कष्ट के समय अपने मन को शरीर से हटा कर जिनाज्ञानुसार आत्म चिन्तन में लगाना चाहिए और धैर्य के साथ कष्टों को सहने का प्रयत्न करना चाहिए। यही तीर्थंकर भगवान का उपदेश है। इस तरह शरीर एवं आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानने वाले चिन्तनशील मुमुक्षु साधु को किस गुण की प्राप्ति होती है ? इसका उत्तर सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 161 // 1-5-2-3 समुप्पेहमाणस्स इक्कायणरयस्स इह विप्पमुक्कस्स नत्थि मग्गे विरयस्स त्ति बेमि // 161 // II संस्कृत-छाया : सम्यग् उत्प्रेक्षमाणस्य एकायतनरतस्य इह विप्रमुक्तस्य नाऽस्ति मार्गः विरतस्य इति ब्रवीमि // 161 // III सूत्रार्थ : सम्यक् प्रकार से अनुप्रेक्षा करने वाला, ज्ञान दर्शन एवं चारित्र रूप रत्नत्रय का आराधक, शरीर पर ममत्व नहीं रखने वाला और हिंसा आदि आश्रवों से निवृत्त साधक नरकादि गतियों में नहीं जाता ऐसा मैं कहता हूं।