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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 5 - 2 - 2 (160) 389 यह शरीर ऐसा नहि है, अतः यह शरीर अनित्य है... तथा यह शरीर अशाश्वत है... शाश्वत . उसे कहते हैं कि- जो पदार्थ निरंतर एक समान हि विद्यमान रहे, किंतु यह शरीर ऐसा नहि है, अतः अशाश्वत है... तथा यह शरीर चय याने पुष्ट और अपचय याने क्षीण होता है... जैसे कि- इष्ट आहारादि की प्राप्ति से यह शरीर पुष्ट होता है, और इष्ट आहारादि के अभाव में यह शरीर क्षीण होता है... इस प्रकार विनाश आदि विविध परिणाम स्वरूप अन्यथाभावात्मक यह शरीर विपरिणामधर्मवाला है... अत: ऐसे विनश्वरादी शरीर के उपर मोहमूर्छा का क्यों आग्रह हो ? - इस शरीर की सफलता कुशल अनुष्ठान के सिवा है हि नहि... अतः हे मुनिजन ! आप देखो कि- विनश्वरादि धर्मवाले इस पंचेंद्रिय से पूर्ण मानव देह से मोक्षमार्ग की आराधना का अमूल्य अवसर प्राप्त हुआ है, अतः विविध रोग-आतंकों की पीडाओं को समभाव से सहन करें... अब इस परिस्थिति को देखनेवाले मुनी को जो उत्तम गुण प्राप्त होता है वह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र कहेंगे... v. सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधक को कष्ट सहिष्णु बनने का उपदेश दिया गया है। औदारिक शरीर रोगों का आवास स्थल है। जब तक पुण्योदय रहता है, तब तक रोग भी दबे रहते हैं। परन्तु अशातावेदनीय कर्म का उदय होते ही अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। अतः शरीर में रोग एवं वेदना का उत्पन्न होना सहज हि है। क्योंकि- औदारिक शरीर ही रोगों से भराहुआ है। इसलिए रोगों के उत्पन्न होने पर साधक को आकुल-व्याकुल नहीं होना चाहिए। किंतु उन्हें अशुभ कर्म का फल जानकर समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। रोगातंक के समय साधक को यह सोचना चाहिए कि- पूर्व काल में भी मैने रोगों के कष्ट को सहन किया है और अब भी उदय में आए हुए वेदनीय कर्म को वेदना ही होगा। अतः आर्तध्यान करके अशुभ कर्म का बंध क्यों करुं ? यह वेदना मेरे कृत कर्म का ही फल है। अतः समभाव पूर्वक ही सहना चाहिए; यह शरीर सदा स्थायी रहने वाला नहीं है। यह शरीर प्रतिक्षण बदलता रहता है। यह अध्रुव है, अशाश्वत है, अनित्य है, ह्रास एवं अभिवृद्धि वाला है। अतः इसके लिए इतनी चिन्ता क्यों करनी चाहिए? इस तरह धैर्य के साथ कष्ट एवं वेदना को सहकर अशुभ कर्म नष्ट कर दें और पाप कर्म का बन्ध नहीं होने दें। मुनि जीवन का उद्देश्य है कि- कर्म बन्धनों को तोड़ कर निष्कर्म बनना। अतः मुनि को सदा-सर्वदा इस शरीर एवं जीवन को अनित्य समझकर अपने आत्मविकास में संलग्न रहना चाहिए। यह सत्य है कि- शरीर आत्मविकास का साधन है। अतः साध्य की सिद्धि के लिए
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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