________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 5 - 2 - 3 (161) 391 IV टीका-अनुवाद : यह शरीर अनित्यतादि धर्मवाला है, ऐसा अच्छी तरह से जाननेवाले साधुजनों को तथा आयतन याने जहां आत्मा समस्त पापारंभों से विरत होकर कुशल अनुष्ठानों में नियमित होते हैं वह उपाश्रय-धर्म आयतन... अर्थात् ज्ञानादि त्रितय... इस प्रकार के एक ज्ञानादि त्रितय स्वरूप आयतन में हि जो रक्त है; वे एकायतनरत, तथा इस मानवदेह में अथवा मानवजन्म में परमार्थ भावना के द्वारा शरीर के मोहजाल से जो विमुक्त हुए हैं; ऐसे साधुजनों को नरक एवं तिर्यंचगति तथा मनुष्यगति में गमन स्वरूप मार्ग नहि है अथवा इसी जन्म में हि समस्तकर्मो का क्षय होने से उन्हें नरकादि मार्ग नहि है... इति शब्द अधिकार की समाप्ति का सूचक है तथा ब्रवीमि याने मैं सुधर्मस्वामी कहता हुं कि- हे जंबू ! दिव्यज्ञान से विश्व के पदार्थों का स्वरूप जानकर परमात्मा श्री वर्धमानस्वामीजी ने वाणी के माध्यम से जो कहा है, वह मैं तुम्हें कहता हुं... . . इस प्रकार “जो विरत है वह हि मुनी होता है" ऐसा कहकर अब अविरतिवादी परिग्रहवाला होता. है; यह बात कहते हैं... v सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- संसार परिभ्रमण एवं नरकादि गतियों में उत्पन्न होने का कारण पापकर्म है। विषय कषाय में आसक्ति एवं हिंसा आदि दोषों में प्रवृत्ति होने से पाप कर्म का बन्ध होता है। और इस तरह विषयासक्त व्यक्ति संसार में परिभ्रमण करता रहता है। अतः संसार का अन्त करने के लिए आगम शास्त्र में हिंसा आदि दोषों से निवृत्त होने का उपदेश दिया गया है। प्रस्तुत सूत्र में यही बताया गया है कि- जो साधक रत्नत्रय की साधना में संलग्न है, शरीर एवं संयम पालन के उपकरणों पर ममत्व नहीं रखता है और विषय-कषाय एवं हिंसा आदि दोषों में आसक्त नहीं है, वह नरक; तिर्यंच आदि गतियों में नहीं जाता। प्रस्तुत सूत्र में 'इक्काययणरयस्स' शब्द का प्रयोग किया गया है। जहां आत्मा को सभी तरह के पापों से रोका जाए उसे आयतन कहते हैं। यह ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप रत्नत्रय के नाम से प्रसिद्ध है और उस रत्नत्रय में संलग्न रहने वाले साधक को 'एकायतन रत' कहते हैं। अत: साधक रत्नत्रय की साधना-आराधना में संलग्न है। 'नत्थिमग्गे विरयस्स' का तात्पर्य यह है कि- जो साधक हिंसा आदि दोषों से विरक्त है, निवृत्त है उसके लिए संसार परिभ्रमण का मार्ग नहीं है। प्र