________________ 386 // 1 - 5 - 2 - 1 (159) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन न दूसरे व्यक्ति से हिंसा कराता है और किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा की गई हिंसा का अनुमोदन समर्थन भी नहि करता है। मुनि-साधु गृहस्थ की निश्रा अर्थात् गृहस्थ के अधिकार में रहे हुए उसके मकान में उसकी आज्ञा से रहता है। यहां भी अनुशासन तो देव-गुरु का हि होता है... लोक की निश्रा में रहते हुए भी वह मुमुक्षु-साधु आरम्भ की ओर प्रवृत्त नहीं होता है। इसका तात्पर्य यह है कि- वह गृहस्थ की आज्ञा से उसके मकान में रहते हुए भी ऐसा आहार-पानी, वस्त्र-पात्र, तख्त आदि आवश्यक साधन-सामग्री स्वीकार नहीं करता कि- जिसमें साधु के लिए आरम्भसमारम्भ किया गया हो। साधु अपनी साधु मर्यादा के अनुरूप शुद्ध सात्त्विक एवं एषणीय आहार को ग्रहण करेगा। इस प्रकार वह अपनी समस्त क्रियाएं जिनाज्ञा में निर्दिष्ट विवेक पूर्वक करता है और अपने जीवन के लिए किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देता। इसलिए साधु की समस्त क्रियाएं निष्पाप होती हैं। वह मुमुक्षु-साधु पाप कर्म का क्षय करता हुआ मुनि भाव में विचरण करता है। वह इस बात को जानता है कि- यह मोक्ष-मार्ग ही प्रशस्त है, सभी दुःखों से मुक्त करने वाला है। क्योंकि- यह मोक्ष-मार्ग तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट है। इसलिए यह मोक्ष-मार्ग सभी के लिए क्षेमकर है; इस मार्ग में किसी भी प्राणी को संक्लेश उत्पन्न नहीं होता। मुनि अपने हित के साथ प्राणी मात्र के हित का ध्यान रखता है। वह अपने मन वचन और शरीर से किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं पहुंचाता। प्रत्येक प्राणी के प्रति अनुकंपा एवं दया का भाव रखता है। अत: यह. मोक्ष-मार्ग सर्व श्रेष्ठ एवं प्राणीजगत के लिए हितप्रद है। निष्कर्ष यह है कि- यह मोक्ष-मार्ग प्रशस्त है। परन्तु प्रशस्त के साथ कठिन भी है। इसलिए इस मार्ग पर चलने के लिए उद्यत हुए व्यक्ति को पूरी सावधानी रखनी होती है। अत: आगम में मुनि को विवेक पूर्वक अप्रमत्त भाव से क्रिया करने का आदेश दिया गया है। मुनि को प्रत्येक कार्य विवेक, यतना एवं अप्रमत्त भाव से करना चाहिए। जिससे किसी भी प्राणी को कष्ट एवं पीड़ा न हो; अतः साधक के लिए परिग्रह का त्याग करना आवश्यक है। क्योंकि- अयतना पूर्वक चलने वाला, खड़ा रहने वाला, बैठने वाला, खाने वाला, बोलने वाला, शयन करने वाला साधु प्राण-भूत जीव, सत्त्व की हिंसा करता है, पाप कर्म का बन्ध करता है। जिस से वह कटु फल को प्राप्त करता है। इससे स्पष्ट है कि- अयतना एवं प्रमादपूर्वक की जाने वाली क्रिया से पाप कर्म का बन्ध होता है। और विवेक पूर्वक अप्रमत्त भाव से की जाने वाली क्रिया से पाप कर्म का बन्ध नहीं होता। अतः मुनि को प्रत्येक समय प्रमाद का त्याग करके अप्रमत्त भाव से संयम-साधना में संलग्न रहना चाहिए। और किसी भी स्थिति में आरम्भ समारंभ नहीं करना चाहिए। प्रतिकूल