________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 5 - 2 - 1 (159) 385 साधु संसार के आरंभ-समारंभ से उठकर क्षणमात्र भी प्रमादाचरण न आचरें... इस विश्व के प्रत्येक प्राणीओं के दुःख अथवा कर्म भिन्न भिन्न है और उन दुःख एवं कर्मो के हेतुभूत अशुभअध्यवसाय भी भिन्न भिन्न होते हैं अर्थात् प्रत्येक प्राणीओं की अपनी अपनी इच्छाएं एवं अभिप्राय भी विविध प्रकार के बंधाध्यवसाय स्वरूप भिन्न भिन्न होते हैं... अतः विभिन्न संकल्पवाले प्राणीओं के कर्म भी विभिन्न होते हैं, तथा दुःख भी भिन्न भिन्न प्रकार के होतें हैं... क्योंकि- कारण विभिन्न होने से कार्य भी भिन्न भिन्न होते हैं... इसीलिये यहां सूत्रमें कहा है कि- दःखों के कारण कर्म विभिन्न होने से प्राणीओं के दुःख भी भिन्न भिन्न प्रकार के होते हैं... तथा सभी प्राणी अपने अपने कीये हुए कर्मो के फल पाते हैं... अन्य प्राणी के कर्मो का फल, अन्य प्राणी को कभी भी प्राप्त नहि होता... अर्थात् प्रत्येक जीव स्वकृत कर्मो का संवेदन करते हैं... . इस स्थिति में अनारंभजीवी साधुलोग प्रत्येक प्राणीओं के सुख एवं दुःखों को जानते हुए कीसी भी प्राणी का वध नहि करतें... तथा वस्तु स्थिति का अपलाप भी नहि करतें... तथा पांच महाव्रत की प्रतिज्ञा लेकर यथाविधि प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हैं... शीत-उष्णादि स्वरूप परीषह एवं देव आदि से होनेवाले उपसर्गों के दुःखदायक कठोर स्पर्शों में अनाकुल रहकर “संसार असार है"- इत्यादि शुभ भावनाओं से उन परीषह एवं उपसर्गों को सम-भाव से सहन करते हैं... अर्थात् परीषह एवं उपसर्गों से होनेवाले दुःखों में “मैं दुःखी हु" ऐसा विचार नहि करतें... . जो साधु परीषह एवं उपसर्गों को सम्यक् भाव से सहन करते हैं उन्हें कौनसा आत्मगुण प्राप्त होता है ? इस प्रश्नका उत्तर सूत्रकार महर्षि आगेके सूत्र से कहेंगे... 'V सूत्रसार : प्रथम उद्देशक में मुनित्व की साधना से दूर रहे हुए व्यक्तियों के विषय में वर्णन किया गया था। प्रस्तुत उद्देशक में उन साधकों के जीवन का विवेचन किया गया है; कि- जो मुनित्व की साधना में संलग्न रहते हैं। मुनि कौन हो सकता है ? इसका विवेचन सूत्रकार महर्षि प्रस्तुत इस उदेशक में कहते हैं... - प्रस्तुत सूत्र में मुनि जीवन का विश्लेषण किया गया है। मुनि के लिए आगम में बताया गया है कि- मुनि पूर्णत: हिंसा का त्यागी होता है। अत: लोक में जितने भी प्राणी हैं; उनमें मुनि का आचार विशिष्ट है। क्योंकि- असंयत प्राणियों का जीवन आरम्भ से युक्त होता है; परन्तु मुनि का जीवन अनारम्भी अर्थात् आरम्भ से रहित होता है। वह किसी भी स्थितिपरिस्थिति में आरम्भ जीव हिंसा नहीं करता। तीन करण और तीन योग से हिंसा का त्याग होता है। अतः वह साधु मन, वचन और काय से न तो किसी प्राणी की हिंसा करता है;