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________________ 384 1 - 5 - 2 - 1 (159) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन नहि करता, असत्य नहि बोलता... एवं शीतोष्णादि परिषहों को सम्यग् रूप से सहन करता है; परीषह एवं उपसर्गों में वह साधु व्याकुल नहीं होता; क्योंकि- वह सम्यग्दर्शन से युक्त है। IV टीका-अनुवाद : ___ इस मनुष्य लोक में जो कोइ मनुष्य साधु अनारंभजीवी हैं... आरंभ याने सावद्यानुष्ठान अथवा प्रमत्तयोग... कंहा भी है कि- आदान याने वस्तु लेने में, निक्षेप याने वस्तु को रखने में तथा भाषा, उत्सर्ग, स्थान याने रहने में एवं गमनागमन में जो कुछ प्रमादवाला योग है वह सब कुछ आरंभ है... अत: इस आरंभ से जो निवृत्त हुए हैं; वे अनारंभजीवी साधुलोग हैं... अर्थात् साधुलोग समस्त आरंभ से निवृत्त होते हैं... पुत्र, स्त्री एवं अपने शरीर आदि के लिये आरंभ में प्रवृत्त गृहस्थों के बिच साधुलोग अनारंभजीवी होतें हैं... यहां सारांश यह है कि- आरंभ-समारंभ में प्रवृत्त गृहस्थ-लोगों के बीच संयमनिष्ठ मुमुक्षु साधुलोग पंक, याने कादव में उत्पन्न कमल की तरह निर्लेप याने जलकमलवत् निर्लेप होकर अनारंभजीवी होतें __ सावद्यारंभ से निवृत्त और श्रमण धर्म में व्यवस्थित रहे हुए साधुलोग पंचाचार से पुरातन कर्मो को क्षय करते हुए मुनिभाव को प्राप्त करते हैं... अविविक्षित कर्मवाले धातु अकर्मक कहे जाते हैं, जैसे कि- देखो मृग दौडता है... इस प्रकार यहां संधी-पद में प्रथमा विभक्ति देखा है... यह याने प्रत्यक्ष रहा हुआ आर्यदेश, उत्तमकुल में जन्म तथा पांच इंद्रियां युक्त सांगोपांग शरीर एवं श्रद्धा-संवेगवाला साधु (मनुष्य) और संधी याने मिथ्यात्व के क्षय से सम्यक्त्व का अवसर... अथवा सम्यक्त्व की प्राप्ति के कारण कर्मविवर स्वरूप अवसर... अथवा शुभ अध्यवसाय के संधानवाला अवसर... ऐसा शुभ अवसर अपने आत्मा में आया हुआ है ऐसा वह साधु देखे और एक क्षण मात्र भी विषयादि प्रमादवाला न हो... तत्त्वज्ञान को पाया हुआ साधु, शुभ कर्म के उदय से प्राप्त विशेष प्रकार का औदारिक शरीरवाला मानव देह, और इस मनुष्य जीवन में सुख एवं दुःखवाले वर्तमान काल में सदा क्षण याने आराधना के अवसर को ढुंढनेवाला वह हमेशां अप्रमत्त रहता है... यह मोक्षमार्ग सभी हेय पदार्थों से दूर रहे हुए तीर्थंकर एवं गणधरों ने कहा है... उन्होंने यह मोक्षमार्ग मात्र कहा हि नहि है; किंतु स्वयं भी इस मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हुए हैं... अत: साधुलोग इस मोक्षमार्ग को प्राप्त करके क्षणमात्र भी प्रमाद न करें... तथा इस विश्व के सभी प्राणीओं के दुःख एवं उन दुःखों के कारण ऐसे कर्मो को जानकर तथा सभी प्राणी मन को आह्लाद करे ऐसे साता-सुख को चाहतें हैं; ऐसा जानकर
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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