________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 5 - 2 - 2 (160) 387 एवं अनुकूल परीषह उत्पन्न होने पर भी अपने पथ से विचलित नहीं होना चाहिए। कष्ट के समय भी उसे आरम्भ समारंभ नहीं करना चाहिए। क्योंकि- यह आर्योपदिष्ट मोक्ष-मार्ग बारबार नहीं मिलता। इसलिए प्राप्त हुए अवसर को सफल बनाने के लिए साधक को अपनी पूरी शक्ति सामर्थ्य को लगा देनी चाहिए। अब प्रश्न होता है कि- आए हुए परीषहों को सहन करने से किस गुण की प्राप्ति होती है ? इस बात का समाधान सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 160 // 1-5-2-2 एस समिया परियार विद्याहिए, जे असता पावहिं कस्मेहिं उदाहु ते आयंका फुसंति, इति उदाहु धीरे ते फासे पुट्ठो अहियासइ, से पुव्विं पेयं पच्छा पेयं भेउरधम्म विद्धंसणधम्म अधुवं अनिइयं असासयं चयावचइयं विप्परिणामधम्मं पासह एयं रूवसंधिं // 160 // II संस्कृत-छाया : एषः सम्यक् पर्यायः व्याख्यातः, ये असक्ताः पापैः कर्मभिः उदाहुः ते आतङ्काः स्पृशन्ति, इति उदाहुः धीरः तान् स्पर्शान् स्पृष्टः अध्यासयेत्, सः पूर्वमप्येतत् पश्चादप्येतत् भिदुरधर्म विध्वंसनधर्म अध्रुवं अनित्यं अशाश्वतं चयापचयिकं विपरिणामधर्म पश्यत एतत् रूपसन्धिम् // 160 // III सूत्रार्थ : * जो साधक पाप कर्म में आसक्त नहीं है, ऐसे चारित्रनिष्ठ साधक को मुनि कहा गया है। उसके लिए तीर्थंकरों ने कहा है कि- वह धैर्यवान साधक रोग आदि के उत्पन्न होने पर उन्हें समभाव पूर्वक सहन करता है। वह संयमी पुरुष ऐसा सोचता-विचारता है कि- यह रोग मैंने पहिले भी सहन किया था। और पीछे भी मुझे सहन करना ही है। यह शरीर स्थायी रहने वाला नहीं है। यह शरीर विध्वंस-नष्ट होने वाला है। यह शरीर अध्रुव, अनित्य अशाश्वत है, हास और अभिवृद्धि वाला है। अतः ऐसे नाशवान् शरीर पर क्या ममत्व करना ? इस तरह शरीर के विनश्वर स्वरूप एवं प्राप्त हुए अमूल्य अवसर को देखो। IV टीका-अनुवाद : परीषहों को जितनेवाला सम्यक् प्रव्रज्यावाला अथवा शमभाव वाली प्रव्रज्या के पर्यायवाला साधु परीषह एवं उपसर्गों से क्षोभ नहि पाता, तथा व्याधि अर्थात् रोगों को भी सहन करता है... वह इस प्रकार- विषय-काम विकारों को दूर करने से