________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 1-5 - 1 - 5 (158) 379 चार में यहां धृति का अधिकार है... वह इस प्रकार- द्रव्यचार- अरस विरस एवं प्रांत रूक्ष आदि आहारादि में धृत्ति धारण करें... तथा क्षेत्रचार- कुतीर्थिकों से भावित एवं प्रकृति से अभद्रक लोगवाले क्षेत्र में उद्वेग न करें... कालचार- दुष्काल आदि में निर्दोष जो कुछ आहारादि प्राप्त हो, उसमें संतोष रखें... तथा भावचार- आक्रोश, तर्जना, तिरस्कार एवं उपहास आदि की स्थिति में क्रोध न करें... विशेष प्रकार से क्षेत्र एवं काल जहां न्यून हो; वहां धृति धारण करें क्योंकि- द्रव्य और भाव चार में क्षेत्र और काल की विशेष असर होती है... अब विशेष प्रकार से साधुओं के द्रव्यादि चार कहतें हैं... नि. 249 . पाप याने पाप के कारण हिंसा जुठ चोरी - अब्रह्म एवं परिग्रह का त्याग वह द्रव्यचार है... तथा क्षेत्रचार याने जहां सदा गुरुजी का सान्निध्य प्राप्त हो, ऐसे गुरुकुल में जीवन पर्यंत रहना और गुरुजी के उपदेश को जीवन में फैलाना... तथा कालचार याने जीवन पर्यंत गुरुजी के सान्निध्य में रहना... और भावचार याने उन्मार्ग अर्थात् अकार्याचरण का त्याग करना... एवं राग-द्वेष से विरत होकर साधु पंचाचारात्मक संयमानुष्ठान करें... नियुक्ति पूर्ण हुइ, अब सूत्रकी व्याख्या करते हैं... कि- जिस साधु को विषयकषायवाली एकचर्या होती है वे मनुष्य विषयों में आसक्त, इंद्रियों के विकारों से किं कर्तव्य मूढ अर्थात् विवेकशून्य ऐसे कुतीर्थिक हो या गृहस्थ, किंतु वे अन्य प्राणीओ से पराभव प्राप्त होने पर अतिशय क्रुद्ध होता है... तथा अन्य से वंदन-सत्कार प्राप्त होने पर अभिमान करतें हैं... तथा कुरुकुच आदि से अथवा कल्क तपश्चर्या के द्वारा बहोत माया करते हैं... और यह सब कुछ धर्माचरण अनुष्ठान आहारादि के लोभ से करते हैं अत: बहुलोभी हैं... इस प्रकार क्रोधादि करने से वे बहोत पाप कर्म-रजवाले होतें हैं; अथवा आरंभ आदि में रक्त होतें हैं तथा भोगोपभोग की सामग्री के लिये नटकी तरह बहोत प्रकार के वेष को धारण करतें हैं... तथा बहोत प्रकार से शठ याने कपट करतें हैं और अनेक प्रकार के कार्यों संबंधी संकल्पविकल्प करतें हैं... इसी प्रकार अन्य चौर आदि लोगों की भी एकचर्या स्वयं हि कहियेगा... ऐसी स्थिति में वह मनुष्य हिंसादि आश्रवों में आसक्त होता है, तथा पलित याने कर्मो से दबाया जाता है, ऐसी स्थिति में भी वे कुतीर्थिक ऐसा कहते हैं कि- मैं प्रव्रजित हुं... धर्म के आचरण में उद्यत हुं... किंतु आचरण अधर्म के होने के कारण से वे अधिक अधिक कर्मो से आच्छादित होते रहते हैं... और अज्ञान एवं प्रमाददोष के कारण से वे आश्रवों के द्वारों में प्रवृत्त होते हऐ भी आहारादि आजीविका के भय से कोइ न देखे इस प्रकार प्रच्छन्न याने गुप्त रीति से सावद्य-पापाचरण करते हैं... तथा निरंतर मोहनीय कर्म के उदय से अथवा अज्ञान से सच्चे श्रुतधर्म एवं चारित्रधर्म को नहि जान शकतें...