________________ 378 1 - 5 - 1 - 5 (158) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भी पूजा-सेवा-भक्ति की... अब इस उदाहरण का सारांश यह है कि- इन दोनों तापसों ने पूजा एवं कीर्ति के लिये एकचर्या की... अतः यह अप्रशस्त है... इसी प्रकार अन्य भी अप्रशस्त-एकचर्यावाले दृष्टांत यथासंभव स्वयं हि समझ ले... इस प्रकार सूत्रार्थ की व्याख्या करने के बाद सूत्र स्पर्शिक नियुक्तिकार श्री भद्रबाहुस्वामीजी व्याख्या करतें हैं... नि.२४६ चार, चर्या एवं चरण यह तीनों शब्द एकार्थ हैं... इन तीनों शब्द में व्यंजन भिन्न भिन्न हैं... व्यंजन याने जिस से अर्थ प्रगट हो वह... यहां चर् धातु है... इसका मुख्य अर्थ गति एवं भक्षण क्रिया है... यहां चार शब्द के छह (6) निक्षेप होतें है... नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल एवं भाव... यहां नाम एवं स्थापना निक्षेप सुगम होने से अब द्रव्यचार का स्वरूप कहतें है... ज्ञशरीर-भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त द्रव्यचार - जलमार्ग - स्थलमार्ग तथा जल की झील - झरणे को उल्लंघन करने के लिए रखा हुआ दारुसंक्रम याने लकडी की पटीया... इत्यादि अनेक प्रकार हैं... जल में सेतु (पुलीया) स्थल में गर्ता - खड्डा को ओलंघना... जलमार्ग... नौका आदि से तथा स्थलमार्ग रथ आदि से... आदि शब्द से महल आदि में पगथिये... सीढी आदि.. अथवा एक देश से अन्य देश में जाना वह द्रव्यचार है... अब क्षेत्रचार आदि का स्वरूप कहते हैं... नि.२४७ क्षेत्रचार याने जिस क्षेत्र में चार (चलना) कीया जाय वह अथवा जितने क्षेत्र में चला जाय वह... कालचार याने जिस काल में चलन-क्रिया हो अथवा जितने काल में चलन-क्रिया हो वह काल-चार... भाव-चारके दो प्रकार हैं - 1. प्रशस्त एवं 2. अप्रशस्त... प्रशस्त भावचार - ज्ञान-दर्शन एवं चारित्रादि... साधुजनों को.. अप्रशस्त भावचार - ज्ञानादि से भिन्न... यह गृहस्थ एवं कुतीदिकों को... इस प्रकार सामान्य से द्रव्यादि चार का स्वरूप कहने के बाद अब यहां जिसका अधिकार है; उस प्रशस्त भावचार का स्वरूप कहतें हैं... नि.२४८ द्रव्य क्षेत्र काल एवं भाव स्वरूप चतुर्विध लोक में श्रमण याने साधु के द्रव्यादि चतुर्विध