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________________ 380 1 - 5 - 1 - 5 (158) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हे मानव ! विषय एवं कषायों से आर्त याने पीडित मनुष्य (प्राणी) आठों प्रकार के कर्मबंध में मग्न होते हैं; अतः वे धर्मानुष्ठान में कुशल नहि होतें... अर्थात् आठों प्रकार के कर्मबंध करनेवाले अज्ञानी जीव धर्म को अच्छी तरह से नहि जान पातें... इस स्थिति में पापाचरणवाले वे लोग “ज्ञान-दर्शन-चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग है" इस बात को अविद्या कहकर इससे विपरीत विषयाभिलाषा एवं कामभोग की बातों को विद्या कहकर यह कहते हैं कियह भोगोपभोग हि मोक्षमार्ग है... इस प्रकार विपरीत समझ एवं आचरण से वे प्राणी भवावर्त याने संसार में अरघट्ट घटीयंत्र के न्याय से नरकादि चारों गतियों में बार बार परिभ्रमण करतें हैं... इति शब्द अधिकार के समाप्ति का सूचक है; एवं ब्रवीमि पद का अर्थ पूर्ववत् जानीयेगा... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में विषय-वासना में आसक्त व्यक्ति के जीवन का दिग्दर्शन कराया गया है। यह स्पष्ट है कि- वासना में आसक्त व्यक्ति दूसरे प्राणियों के हिताहित को नहीं देखता। वह अपनी भोगेच्छा की पूर्ति के लिए उपयुक्त-अनुपयुक्त कार्य करते हुए संकोच नहीं करता। परिणामस्वरूप पाप कर्म का बन्ध करके नरकादि गतियों में उत्पन्न होता है। ओर वहां विविध वेदना का संवेदन करता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि- जो प्राणी अज्ञान के वश वासना में आसक्त रहता है; वह नीच योनि में उत्पन्न होकर अनेक कष्टों को सहता है; संसार में परिभ्रमण करता है। भले ही वह गृहस्थ के वेश में हो या साधु के वेश में; जैन कुल में उत्पन्न हुआ हो या जैनेतर कुल में; विषय वासना में आसक्ति एवं दुष्कर्म में प्रवृत्ति रखना किसी के लिए भी हितप्रद नहीं है। क्योंकि- जो व्यक्ति जैसा कर्म करता है; उसे उसके अनुरूप फल प्राप्त होता है। ___ परन्तु, अज्ञानी लोग अशरण ऐसे दुष्कर्म को शरणभूत मानकर उस में प्रवृत्त होता है। और अधिक दुःख एवं कष्ट का वेदन करता है। कुछ व्यक्ति विषय-वासना का त्याग करके मुनि बनते है; परन्तु फिर से विषय-कषाय के वश में होकर अकेले विचरने लगते हैं। इससे उन पर आचार्य एवं गुरु आदि किसी का नियन्त्रण नहीं रहता। और अनुशासन के अभाव में उनके जीवन में कषायों-क्रोध; मान, माया; लोभ एवं विषयों की अभिवृद्धि होती है। वह गुप्त रूप से पाप कर्म में प्रवृत्त रहता है। और अंत में वह पतन के गर्त में गिरता है। अज्ञान के कारण ही कुछ व्यक्ति अधर्म एवं पापकार्यों को धर्म समझते हैं। दुराग्रह के कारण वे धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझने का प्रयास नहीं करते। या यों कहिए किवे अपनी मिथ्या प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए धर्म के यथार्थ स्वरूप को स्वीकार नहीं करते, किंतु अधर्म को ही धर्म का चोला पहनाकर स्वयं पाप कर्म में प्रवृत्त होते हैं और जनता
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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