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________________ 352 1 -4-4-2 (151) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन सुख की कामना नहीं होनी चाहिए। निष्काम भाव से एकान्त निर्जरा की दृष्टि से किया गया तप ही कर्मक्षय करने में समर्थ होता है। - तप-साधना का प्रमुख उद्देश्य कार्मण शरीर को कृश करना है। कार्मण शरीर की कृशता से ही आत्म गुणों का विकास होता है। इस अपेक्षा से आपीड़न आदि शब्दों का यह अर्थ होगा कि-चौथे से सातवें गुणस्थान तक आपीड़न-सामान्य तप, आठवें और नवमें गुणस्थान में प्रपीड़न-विशेष तप और दसवें गुणस्थान में निष्पीड़न-तप अथवा औपशमिक श्रेणी में आपीड़न तप क्षपकश्रेणी में प्रपीडन तप और शैलेशी अवस्था में निष्पीड़न तप होता है। यह तप मोक्ष-साधना के लिए विशेष शास्त्रीय पद्धति है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि- असंयम का त्याग करके उपशम भाव को प्राप्त व्यक्ति तप के द्वारा कर्मों की निर्जरा करता है। जो व्यक्ति ज्ञान एवं समिति से युक्त है; वही, तप एवं संयम मार्ग पर चल सकता है। साधना का, मुक्ति का, संयम का मार्ग दुबलों का नहीं, किंतु वीरों का है। वही वीर-साधु इस पथ पर चल सकता है कि- जो संसार के स्वरूप को भली-भांति जानता है और ब्रह्मचर्य से युक्त है। ब्रह्मचर्यनिष्ठ व्यक्ति कर्मों को शीघ्र ही क्षय कर देता है। परन्तु ब्रह्मचर्य के पालन के लिए इन्द्रिय एवं मन को विशेष रूप से वश में रखना होता है। और उन्हें वश में रखने का उपाय है-तप। अर्थात् रसना को नियन्त्रण में रखना। कहा भी जाता है की-“एक इन्द्रिय-रसना को वश में रखने पर शेष चारों इन्द्रिए वश में हो जाती है... रसना के पोषण से या प्रकाम भोजन से शरीर में मांस-खून एवं चर्बी बढ़ेगी। इससे विकार भाव जगेगा। मन एवं अन्य इन्द्रिएं विषय-भोगों की ओर आकर्षित होंगी इसलिए ब्रह्मचर्य का परिपालन करने वाले साधक के लिए यह बताया गया है कि- वह तपश्चर्या के द्वारा मांस और शोणित को सुखा दे। मांस और शोणित की शक्ति निर्बल होने पर ब्रह्मचर्य की साधना भली-भांति हो सकेगी। और इस प्रकार साधक कर्म क्षय करने में सहज ही सफलता प्राप्त कर लेगा। जो साधक विषयों की आसक्ति का त्याग नहीं करता उसकी क्या स्थिति होती है ? इस संबन्ध में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 151 // 1-4-4-2 नित्तेहिं पलिच्छिन्नेहिं आयाणसोयगड्दिए बाले, अव्वोच्छिन्नबंधणे अणभिक्कंतसंजोए तमंसि अवियाणओ आणाए लंभो नत्थि तिबेमि // 151 //
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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