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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-4 -4 - 2 (151) // 353 II संस्कृत-छाया : . नेत्रैः परिच्छन्नैः आदानश्रोतोगृद्धः बालः अव्यवच्छिन्न बन्धनं अनभिक्रान्तसंयोग: तमसि अविजानतः आज्ञाया: लाभ: नाऽस्ति इति ब्रवीमि // 151 // III सूत्रार्थ : नेत्र आदि इंद्रियों के विषयों का त्याग करने के बाद कभी कर्मोदय से प्राणी इंद्रियों के विषयों में आसक्त होता है, तब अविच्छेद जन्मादि के बंधनवाला, धन-धान्यादि के संयोगों का त्याग न करनेवाला वह मनुष्य मोहांधकार में घूमता है कि- जहां आत्मज्ञान का अभाव है और तीर्थंकर के उपदेश का लाभ नहि है; ऐसा मैं कहता हुं... // 151 // IV टीका-अनुवाद : नेत्र याने अर्थ क्रिया में समर्थ ऐसे अर्थ-वस्तु को जो प्रगट करे, वह नेत्र याने चक्षु... आदि इंद्रियों को अपने अपने विषय में जाते हुए संयमित करके ब्रह्मचर्य याने संयम में रहने के बावजुद भी प्रमादावस्था में पुनः मोहनीय कर्म के उदय से आदान याने सावध अनुष्ठान से ग्रहण होनेवाले कर्म... कि- जो संसार के बीज स्वरूप है... और उन कर्मो के आगमन के कारण है- पांच इंद्रियों के विषय अथवा मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय एवं योग... अत: इस आदान के श्रोत में गृद्ध याने आसक्त बाल याने राग, द्वेष, एवं महामोहादि से अभिभूत अंत:करणवाला अज्ञ प्राणी सेंकडों जन्म के अनुबंधवाले आठों प्रकार के कर्मो का बंधन करता है... तथा धन, धान्य, हिरण्य, सुवर्ण, पुत्र, कलत्र (पत्नी) आदि का संयोग अथवा असंयम का संयोग जिन्होंने त्याग नहि कीया है; वे इंद्रियों के विषयों की अनुकूलता स्वरूप मोहांधकार में आत्महित स्वरूप मोक्ष का उपाय जानते नहि हैं, और उन्हें आज्ञा याने तीर्थंकर प्रभु के उपदेश का लाभ भी प्राप्त होता नहि है... यह बात श्री महावीर परमात्मा के मुख से सुनकर मैं (सुधर्मस्वामीजी) हे जंबू ! तुम्हें कहता हुं... अथवा तो आज्ञा याने बोधिरत्न = सम्यक्त्व... तथा यहां “अस्ति" पद त्रिकाल विषयवाला अव्यय है... इस कारण से ऐसा शब्दार्थ करें कि- बाह्य एवं अभ्यंतर संयोगों का त्याग नहि करनेवाले प्राणीने मोहांधकार में रहते हुए भूतकाल में बोधिलाभ की प्राप्ति नहि की है, वर्तमानकाल में बोधिलाभ को नहि पा शकता है, और भविष्यत्काल में बोधिलाभ नहि पा शकेगा... यह हि बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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