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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 4 - 3 - 2 (148) 345 में समर्थ है ? इत्यादि चिंतन करके शरीर को संयमाचरण स्वरूप आत्मशुद्धि के कार्य में जो.... * तथा विगइओं के त्याग आदि तपश्चया के द्वारा शरीर को ऐसा तो नि:सार बना दो कि- शरीर जरा से जीर्ण हो ऐसा = दीखाइ दे... जिस प्रकार अग्नि जीर्ण नि:सार काष्ठ को जलाकर भस्मसात् करता है, इसी प्रकार तपश्चर्या से शरीर एवं कर्मो का विनाश करें... तथा ज्ञान, दर्शन एवं चारित्राचार के अनुष्ठानों के द्वारा सदा आत्मा में हि उपयोग रखें... अर्थात् समाधिवाले रहें... सदा शुभ-पंचाचार के आचरणवाले रहें... तथा स्नेह (राग) रहित होकर तपश्चर्या स्वरूप अग्नि में कर्म स्वरूप काष्ठ का दहन करें... कहे गये दृष्टांत एवं दृार्टीतिक का उपसंहार करने की इच्छावाले नियुक्तिकार स्वयं हि नियुक्ति-गाथा से यह हि बात कहते हैं... नि. 234 जिस प्रकार छिद्रवाले काष्ठ तथा दीर्घकाल से सुके (शुष्क) काष्ठ (लकडी) को अग्नि तत्काल जलाती है, इसी हि प्रकार सम्यक्चारित्र में रहे हुए संयमनिष्ठ साधु तपश्चर्या से कर्मो का क्षय (विनाश) करते हैं... _यहां “अस्नेह" पदं से राग का निवारण कहकर अब द्वेष के निवारण के लिये कहतें हैं कि- कारण हो या न हो, तो भी अतिक्रूर अध्यवसायवाले एवं कंपन स्वरूप क्रोध का मुमुक्षु साधु अविकंपमान होकर त्याग करें / अतः अब किसकी विगणना करके यह कार्य करें ? यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... ___V सूत्रसार : संसार में कर्मबन्ध का कारण स्नेह-राग भाव है। स्नेह का अर्थ चिकनाहट होता है। इसी कारण तेल को भी स्नेह कहते हैं। हम देखते हैं कि- जहां स्निग्धता होती है, वहां मैल जल्दी जम जाता है। इसी प्रकार जिस आत्मा को राग भाव रहता है, उस आत्मा में ही कर्म आकर चिपकते है, राग भाव से रहित आत्मा को कर्म बन्ध नहीं होता। यही बात प्रस्तुत सूत्र में बताई गई है कि- पंडित साधु-पुरुष राग रहित होकर आत्मा के एकत्व स्वरूप का चिन्तन करके शरीर अर्थात् कर्मों का क्षय करता है और एक दिन निष्कर्म हो जाता है। 'अणिहे' शब्द का संस्कृत में 'अनिहत' रूप भी बनता है। इसका अर्थ होता हैजो विषय-कषाय आदि भाव शत्रुओं से अभिहत न हो। इसका तात्पर्य यह हुआ कि- वीतराग आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला साधक आन्तरिक शत्रुओं से परास्त नहीं होता है। ऐसा साधक साधु-पुरुष ही स्नेह-राग भाव से निवृत्त होकर आत्म समाधि में संलग्न हो सकता है।
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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