________________ 346 1 - 4 - 3 - 3 (149) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इसलिए साधक को राग-भाव का त्याग करके तप के द्वारा शरीर को कृश एवं जीर्ण बनाना चाहिए। क्योंकि- प्रज्वलित अग्नि में जीर्ण काष्ठ जल्दी ही जल जाता है, उसी प्रकार तप से जीर्ण-शीर्ण बने कर्म भी जल्दी नष्ट हो जाते हैं। __ इस प्रकार आत्म समाधि प्राप्त करने के लिए साधक को राग भाव एवं क्रोध आदि कषायों का परित्याग कर देना चाहिए। क्योंकि- क्रोध आदि विकारों से आत्मा में सदा व्याकुलता बनी रहती है। योगों में स्थिरता नहीं आ पाती। मानसिक वैचारिक चंचलता एवं शारीरिक कंपन को दूर करने के लिए क्रोध आदि विकारों का त्याग करना आवश्यक है। इससे आत्म चिन्तन में स्थिरता आती है। यहां प्रश्न यह है कि- वीतराग आज्ञा का परिपालन करने वाले साधक को किस वस्तु का चिन्तन करना चाहिए ? इसका समाधान करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं:.. I सूत्र // 3 // // 149 // 1-4-3-3 इमं निरुद्धाउयं संपेहाए, दुक्खं च जाण अदु आगमेस्सं, पुढो फासाइं च फासे, लोयं च पास विफंदमाणं, जे निव्वुडा पावेहिं कम्मेहिं अणियाणा ते वियाहिया, तम्हा अतिविज्जो नो पडिसंजलिज्जासि तिबेमि // 149 // II संस्कृत-छाया : इदं निरुद्धायुष्कं सम्प्रेक्ष्य, दुःखं च जानीहि, अथवा आगामि, पृथक् स्पर्शान् च स्पृशेत्, लोकं च पश्य विस्पन्दमानान्। ये निर्वृत्ताः पापेषु कर्मसु, अनिदानाः ते व्याख्याताः, तस्मात् हे अतिविद्वन् ! न प्रतिसञ्वलेः इति ब्रवीमि // 149 // III सूत्रार्थ : इस मनुष्य जन्म के क्षीण होते हुए आयुष्य को देखकर, इस जन्म के एवं आगामी जन्म के दुःखों को जानो ! सातों नरकों के स्पर्श का अनुभव (चिंतन) करें... तथा भागदौड करनेवाले लोगों को देखो ! पाप कर्मो से जो निर्वृत हुए हैं वे अनिदानवाले कहे हैं, इसलिये हे विद्वान् मुनी क्रोध-अग्निसे मत जलो... ऐसा मैं (सुधर्मस्वामी) कहता हुं // 149 // IV टीका-अनुवाद : क्षीण हो रहे आयुष्यावाले इस मनुष्य जन्म को देखकर मुनी क्रोध आदि कषायों का त्याग करें... तथा क्रोधाग्नि से जल रहे प्राणी को जो मानसिक दुःख उत्पन्न होता है, उसका चिंतन करें... तथा उस क्रोधादि के कारण से होनेवाले कर्मबंध के फल स्वरूप भविष्यत्काल के नरकादि में होनेवाले दु:खों का विचार करके क्रोध आदि कषायों का प्रत्याख्यान