________________ 344 // 1 - 4 - 3 - 2 (148) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : इस जिनप्रवचन में आज्ञाकांक्षी पंडित अस्नेह, एक आत्मा को हि देखकर शरीर का विधूनन (विनाश) करें... अपने शरीर को तपश्चर्या से कृश (दुर्बल) करें, अपने शरीर को जीर्ण करें... जिस प्रकार- जीर्ण काष्ठ को अग्नि भस्मसात् करता है... इसी प्रकार आत्मा में समाधिवाला एवं स्नेह रहित अकंपमान मुनी क्रोध का त्याग करें... // 148 // IV टीका-अनुवाद : इस जिनप्रवचन में सर्वज्ञ प्रभु के उपदेश अनुसार अनुष्ठान करनेवाले आज्ञाकांक्षी, विदितवेद्य याने पंडित तथा कर्मबंध के स्नेह के अभाववाले अर्थात् राग एवं द्वेष रहित, अथवा इंद्रिय एवं कषाय कर्म स्वरूप भावशत्रु से जो विनष्ट नहि होतें ऐसे हि मुनी परमार्थ से कर्मो के परिज्ञाता होतें हैं... तथा धन, धान्य, सोना-चांदी, पुत्र, स्त्री एवं शरीर आदि से विभिन्न स्वरूपवाले आत्मा का पर्यालोचन करके शरीर का विधूनन करें... यहां शरीर का विधूनन याने पूर्वोक्त धन-धान्यादि से आत्मा को विभिन्न देखें.... इस प्रकार शरीर का विधूनन करनेवाले मुनी संसार-भावना तथा एकत्व-भावना का इस प्रकार चिंतन करें... संसार-भावना = यह संसार अनर्थकारी है, यहां कौन किसका है ? अथवा कौन स्वजन है और कौन पराया है ? इस संसार में परिभ्रमण करनेवाले प्राणी शुभकर्मो के उदय से स्वजन होतें हैं और अशुभ-कर्मो के उदय से दुश्मन भी होते हैं, अर्थात् कर्मोदय से स्वजन बने हुए लोग हि कालांतर में दुश्मन भी होते हैं... ऐसा चिंतनकर के यह जानो कि- मैं अकेला हि हुं, पहले भी मेरा कोइ स्वजन या दुश्मन नहिं था, और बाद में भी मेरा कोइ स्वजन या दुश्मन नहि रहेगा... केवल अपने अशुभ कर्मो के उदय से हि यह स्वजन हि कालांतर में दुश्मन होते है... वास्तव में तो पहले भी मेरा मैं हि था और बाद में भी मैं हि मेरा रहुंगा... एकत्व-भावना = सदा काल मैं अकेला हि हु, मेरा कोइ नहि है, और मैं भी अन्य किसी का नहि हुं... तथा ऐसा कोई प्राणी नहि दिखाइ देता कि- जिसका मैं हुं... तथा ऐसा भी कोइ प्राणी नहि है कि- जो वह मेरा हो... तथा आत्मा अकेला हि कर्मबंध करता है और अकेला हि उन कर्मो के फलों को भुगतता है... जन्म भी अकेला हि प्राप्त करता है, तथा मरण भी अकेला हि पाता है... और भवांतर में भी प्राणी अकेला हि जाता है... इत्यादि... अन्यत्व भावना के द्वारा देखें कि- धन-धान्यादि अन्य सभी से आत्मा विभिन्न है, अत: तपश्चर्या के द्वारा शरीर को कृश करें... अथवा यह शरीर कौन से आत्महितकर कार्य