________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1 - 4 - 3 - 2 (148) 343 इसका कारण यह है कि- जो सम्यग्दृष्टि है; वह संसार के स्वरूप को भली-भांति जानता है और यह भी जानता है कि- आरम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त होने से पाप कर्म का बन्ध होगा और संसार परिभ्रमण बढ़ेगा। इसलिए वह अपने योगों को हिंसा आदि दोषों से बचाकर रखता है। परन्तु, जिसे अपने स्वरूप एवं लोक का यथार्थ ज्ञान नहीं है, वह यद्यपि ज्ञान से संपन्न होने पर भी आरंम्भ-समारम्भ एवं पापों से बच नहीं सकता और हिंसा दोषों में प्रवृत्त होने के कारण पाप कर्म का संग्रह करके संसार में परिभ्रमण करता है। अत: त्यागी संयमी साधु-मनुष्य ही वास्तव में विद्वान है। दुःख का मूल कारण कर्म ही है और कर्म का बीज राग-द्वेष एवं हिंसा आदि दोषजन्य प्रवृत्ति है। इसलिए तीर्थंकरों ने सभी प्रकार के कर्मों को विनाश करने का उपदेश दिया है। क्योंकि- कर्म के विनाश का अर्थ है-राग-द्वेष का क्षय करना। राग-द्वेष कर्म का मूल है, और जब मूल का नाश हो जाएगा तो फिर कर्म वृक्ष तो स्वतः ही सूखकर नष्ट हो जाएगा, निःसत्त्व हो जाएगा। इससे स्पष्ट है कि- तीर्थंकरों ने हिंसा आदि दोष का त्याग करके वीतराग अवस्था को हि प्राप्त करने का उपदेश दिया है। निष्कर्ष यह निकला कि- कर्म क्षय का सर्व श्रेष्ठ मार्ग है-सत्य और संयम का परिपालन और वह महापुरुषों की संगति से ही प्राप्त हो सकता है। अत: साधक को अपनी निष्ठाश्रद्धा को शुद्ध बनाए रखने एवं तप तथा त्याग में तेजस्विता लाने के लिए ज्ञान एवं चारित्र हीन व्यक्तियों की संगति का त्याग करके चारित्र-निष्ठ व्यक्तियों की सेवा करनी चाहिए, अर्थात् उनका परिचय रखना चाहिए। संसार एवं कर्मों के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान होने से श्रद्धा में दृढ़ता आ जाती है। अत: उसके बाद साधक को कर्मों को क्षय करने का प्रयत्न करना चाहिए। अतः कर्म क्षय की साधना का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 148 // 1-4-3-2 . इह आणाकंखी पंडिए अनिहे, एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं, कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं, जहा - जुण्णाई कट्ठाई हव्ववाहो पमत्थइ। एवं अत्तसमाहिए अणिहे, विगिंच कोहं अविकंपमाणे // 148 // II संस्कृत-छाया : इह आज्ञाकाङ्क्षी पण्डितः अस्निहः, एकं आत्मानं सम्प्रेक्ष्य धुनीयात् शरीरकम्। कृशं कुरु आत्मानम्, जरीकुरु आत्मानम् / यथा जीर्णानि काष्ठानि हव्यवाहः प्रमथ्नाति / एवं आत्मसमाहितः अस्निहः परित्यज क्रोधम् अविकम्पमानः // 148 //