________________ 342 // 1 - 4 - 3 - 1 (147) ॐ श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन होता है... ___ तथा पूर्वोक्त सत्ताइस (27) कर्मो में प्रशस्तविहायोगति को मीलाने से अट्ठाइस (28) कर्मवाला सातवा उदयस्थान है... ___ तथा पूर्वोक्त अट्ठाइस (28) कर्मो में से तीर्थंकर नामकर्म को न्यून करने से एवं श्वासोच्छ्वास, सुस्वर, और पराघातकर्म का प्रक्षेप करने से तीस (30) कर्मो के उदयवाला यह आठवा उदयस्थान है... तथा पूर्वोक्त तीस (30) कर्मो में से सुस्वर का निरोध होने पर उनतीस (29) कर्मवाला यह नववां उदयस्थान है... तथा पूर्वोक्त तीस (30) कर्मो में तीर्थंकर नामकर्म को जोडने से इकतीस (31). . कर्मवाला यह दशवां उदयस्थान है... तथा 1. मनुष्यगति, 2. पंचेंद्रियजाति, 3. त्रस, 4. बादर, 5. पर्याप्तक, 6. सुभग, 7. आदेय, 8. यश:कीर्ति एवं 9. तीर्थंकर नामकर्म के उदय स्वरूप यह नव कर्मवाला ग्यारहवां उदयस्थान है... यह अयोगी तीर्थंकर केवली को होता है... * तथा पूर्वोक्त नव (9) कर्मो में से तीर्थंकर नामकर्म को न्यून करने से आठ (8) कर्मो के उदयवाला यह बारहवां उदयस्थान सामान्य केवली को अयोगी गुणस्थानक में होता है... तथा गोत्र कर्म का सामान्य से एक हि उदयस्थान होता है... क्योंकि- उच्च एवं नीचगोत्र परस्पर विरोधी होने से एक जीव को कोइ भी एक गोत्र कर्म का हि उदय होता इस प्रकार अनेक प्रकार के उदयस्थानवाले कर्मो को जानकर परमात्मा प्रत्याख्यान परिज्ञा कहते हैं... परमात्मा यदि कर्मो की परिज्ञा कहते हैं, तो अब हमें क्या करना चाहिये ? इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में सम्यक्त्व को दृढ़ बनाए रखने का उपदेश दिया है। धर्मनिष्ठ व्यक्ति को विपरीत बुद्धि एवं विपरीत आचरण में प्रवृत्त व्यक्तियों का साथ नहीं करना चाहिए। वे कितने भी पढ़े-लिखे एवं प्रौढ़ विद्वान भी क्यों न हों, परन्तु सम्यग् ज्ञान एवं सम्यग् आचरण के अभाव के कारण, वे वास्तविक त्याग-निष्ठ मुनि की समता प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए त्यागी सन्त-साधु को उनसे भी अधिक विद्वान कहा है।