________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 4 - 2 - 4 (146) 331 परस्पर विरुद्ध अलग अलग विवाद करते हैं... अर्थात् परलोक को जानने की इच्छावाले अपने अपने मत के अनुराग से अन्य के मत की निंदा करते हैं... जैसे कि- भागवतवाले कहतें हैं कि- पच्चीस तत्त्वों के परिज्ञान से मोक्ष होता है... तथा आत्मा सर्वव्यापी है, निष्क्रिय है, निर्गुण है चैतन्यलक्षणवाला है तथा निर्विशेष ऐसा सामान्य तत्त्व है... तथा वैशेषिक मतवाले कहतें हैं कि- द्रव्य आदि छह (6) पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्ष होता है... तथा समवायि ज्ञान गुण से इच्छा, प्रयत्न, द्वेष आदि गुणो से गुणवाला आत्मा परस्पर निरपेक्ष ऐसे सामान्यविशेष स्वरूप तत्त्व है... तथा शाक्य मतवाले कहते हैं कि- परलोक में जानेवाला आत्मा हि नहि है... तथा बुद्धमत कहता है कि- सभी वस्तु सामान्य से रहित विशेष तथा क्षणिक हि है... तथा मीमांसक मतवाले मोक्ष एवं सर्वज्ञ के अभाव में रहे हुए हैं... तथा कितनेक मतवाले पृथ्वीकाय आदि एकेंद्रिय जीवों को मानते हि नहि है... तथा कितनेक मतवाले वनस्पति को भी अचेतन कहते हैं... तथा कृमि आदि बेइंद्रिय आदि जीवों में भी जीव का स्वीकार नहि करतें... अत: उनमें जीव का अभाव होने से उनके वध में कर्मबंध नहि है, अथवा अल्प बंध है... ऐसा कहतें है... तथा हिंसा की बाबत में भी भिन्न भिन्न मान्यता है... अन्यत्र कहा है कि- प्राणी, प्राणी का ज्ञान, घातक चित्त, तथा प्राणीवध स्वरूप चेष्टा, और जीव का प्राणों से वियुक्त होना, इस प्रकार हिंसा के पांच स्वरूप है... इत्यादि औद्देशिक के उपभोग की अनुज्ञा आदि कुमतवालों के वचन वास्तविकता से विरुद्ध है... इत्यादि स्वयं हि जान लें. तथा ब्राह्मण और शाक्यादि श्रमण धर्म-विरुद्ध वचन जो भी बोलतें हैं; वे सूत्र से हि कहते हैं... वे ऐसा कहतें हैं कि- दिव्यज्ञान से हमने यह देखा है, अथवा आगम के प्रणेता .ऐसे हमारे तीर्थंकर ने देखा है, और हमने उनसे सुना है... गुरु-शिष्य के संबंध से उत्तरोत्तर आज हमारे पास यज्ञ का तत्त्वज्ञान आया है... और वह युक्तियुक्त होने से हम को मान्य है... अथवा तत्त्व भेद पर्याय से हमारे तीर्थंकरो ने अथवा हमने स्वतः हि देखा है, अन्य के उपदेश से नहि... तथा यह उपर नीचे एवं तिरछी दशों दिशाओं में चारों और से प्रत्यक्ष अनुमान उपमान आगम एवं अर्थापत्ति इत्यादि सभी प्रकार से मन के प्रणिधान आदि के द्वारा अच्छी तरह से पर्यालोचन कीया है, चिंतन कीया है... कि- सभी प्राणी, सभी भूत, सभी जीव एवं सभी सत्त्वों को मारना चाहिये, आदेश देना चाहिये, परिग्रह करना चाहिये, परिताप देना चाहिये, तथा प्राणों के वियोग स्वरूप मरण देना चाहिये... इत्यादि यहां धर्म के चिंतन में ऐसा माना गया है, कि- याग = यज्ञ के लिये अथवा देवता की याचना से प्राणीओं के वध में पापानुबंध स्वरूप दोष नहि है... इसी प्रकार कितनेक औद्देशिक भोजन करनेवाले पाखंडी साधु लोग या ब्राह्मण लोग धर्मविरुद्ध या परलोक विरुद्ध बातें करतें हैं...