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________________ 332 1 - 4 - 2 - 4 (146) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन यहां जिनमत कहता है कि- यह सभी बातें जीवों को पीडा देनेवाली होने से वास्तव में पापानुबंधी है और अनार्यों से कही गई है... तथा सभी हेय (त्याज्य) पदार्थों से जो दूर रहतें है वे; आर्य... तथा इन से जो विपरीत हैं वे; अनार्य... अतः ऐसे अनार्य लोग क्रूर कर्मवाले हैं और उनके वचन प्राणीओं का उपघात (विनाश) करनेवाले हैं... तथा जो श्रमण-साधु लोग ऐसे अनार्य नहि है, किंतु आर्य हैं, अर्थात् देश भाषा एवं आचार से जो आर्य हैं, ऐसे वे जिनमतवाले श्रमण-मुनी ऐसा कहते हैं कि- यहां अनंतर में जो आपने कहा वह आपने या आपके तीर्थंकर ने गलत देखा है, गलत सुना है, गलत माना है, गलत जाना-समझा है, तथा उपर नीचे तिरच्छा सभी दिशाओं में चारों और गलत पर्यालोचन कीया है... ___ तथा आप जो कुछ कहते हो, बोलते हो, इत्यादि कि- याग = यज्ञ एवं उपहार आदि में ऐसा माना गया है, कि- यहां यज्ञ आदि में प्राणीओं के उपमर्दनवाले अनुष्ठानो में पापानुबंध स्वरूप दोष नहि है... इत्यादि... तथा अन्य मतवालों के वचन में दोष प्रगट करके धर्म विरुद्धता दिखाकर, अपने हि मत को सत्य कहनेवाले आप ऐसा कहते हो कि- धर्म विरुद्ध न हो ऐसी प्ररूपणा हम करतें हैं... इत्यादि... किंतु आपके वे हि हंतव्य आदि पद प्रतिषेध के साथ अर्थात् न हन्तव्या इत्यादि... वचन में दोष नहि है, क्योंकि- यहां वध के प्रतिषेध की विधि में पापानुबंध स्वरूप दोष नहिं है... तथा प्राणीओं के वध का प्रतिषेध कहनेवाले यह वचन हि वास्तव में आर्यवचन हैं... ऐसा कहने पर पाखंडी (अन्य मतवाले) कहते हैं कि- “आपके वचन आर्यवचन हैं और हमारे वचन अनार्यवचन हैं" इस प्रकार यह जो आप निरंतर कहते हो, किंतु युक्ति से रहित यह आपकी बात हमे मान्य नहि है... अब सूत्रकार आचार्य म. परमत की अनार्यता सिद्ध करते हुए सोचते हैं कि- "अपनी कदाग्रह युक्त बातों से बंधे हुए वादीगण सहजता से विचलित नहि होतें हैं' इत्यादि... अतः ऐसा मानकर प्रत्येक अन्य मतवालों से प्रश्न करते हुए शास्त्रकार महर्षि श्री सुधर्मस्वामीजी कहतें हैं कि- पहले समय याने आगम... जिनमतवालों के शास्त्र में जो कुछ कहा है वह बराबर चित्त में स्थापित करके हि कहें कि- आर्यवचन कहां है ? जिनमत में या अन्यमत में ? इस प्रकार परमतवालों को प्रश्न करें... अथवा पहले प्रश्न करनेवाले जिनमत के गीतार्थ साधुओं को को स्वमत एवं परमत का सम्यग् ज्ञान देकर बाद में पाखंडीओं को प्रश्न करते हुए कहें कि- हे प्रवादुक्र ! प्रवादीलोग ! हम आपको प्रश्न करतें हैं कि- आपको साता दुखदायक दीखती है कि- असाता ?
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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