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________________ 330 1 - 4 - 2 - 4 (146) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रज्ञापयामः, सर्वे प्राणिनः, सर्वे भूताः, सर्वे जीवाः सर्वे सत्त्वाः, न हन्तव्याः, न आज्ञापयितव्याः, न परिगृहीतव्याः, न परितापयितव्याः, न अपद्रावयितव्याः। अत्राऽपि जानीथ नाऽस्ति अत्र दोषः। आर्यवचनमेतत् / पूर्वं निकाच्य समयं प्रत्येकं प्रत्येकं प्रश्नं करिष्यामि भोः ! भोः ! प्रावादुकाः ! किं युष्माकं सातं दुःखं असातं ? सम्यक् प्रतिपन्नान् अपि एवं ब्रूयात् - सर्वेषां प्राणिनाम्, सर्वेषां भूतानां, सर्वेषां जीवानां, सर्वेषां सत्त्वानां असातं अपरिनिर्वाणं महद्भयं दुःखमिति ब्रवीमि // II सूत्रार्थ : ___ इस लोक में जो कोइ श्रमण या ब्राह्मण हैं; वे विभिन्न विवाद करते हैं... वे ऐसा बोलतें हैं कि- हमने यह देखा है, सुना है, माना है, जाना है, और उपर नीचे एवं तिर्यग् दिशाओं में चारों और अवलोकन कीया है कि- सभी प्राणी, भूत, जीव एवं सत्त्व को मारना चाहिये, आदेश करना चाहिये, संग्रहित करना चाहिये, परिताप देना चाहिये एवं प्राणों से वियुक्त करना चाहिये... और ऐसा सोचते हैं (जानतें हैं) कि- यहां यज्ञ आदि में कोइ दोष नहि है... किंतु यह अनार्यों का वचन हैं... इस लोक में जो आर्य हैं वे इस प्रकार कहतें हैं कि- आपने यह अच्छा नहि देखा, अच्छा नहि सुना, अच्छा नहि माना, अच्छा नहि जाना, उपर नीचे एवं तिर्यग् दिशाओं में चारों और अच्छा नहि अवलोकन कीया... कि- जो आप ऐसा कहते हो, ऐसा बोलते है, ऐसी प्ररूपणा करते हो, और ऐसी प्रज्ञापना करते हो कि- सभी प्राणी, भूत, जीव एवं सत्त्वों को मारना चाहिये इत्यादि पांच पद... और कहते हो कि- ऐसा करने में यहां कोई दोष नहि है... किंतु यह अनार्यों के वचन है... हम तो ऐसा कहते हैं, ऐसा बोलते हैं, ऐसी प्ररूपणा करतें है, और ऐसी प्रज्ञापना करतें हैं कि- सभी प्राणी...४ पद... को मारना नहि चाहिये, आदेश नहि करना चाहिये, संग्रहित नहि करना चाहिये, परिताप नहि देना चाहिये, और प्राणों के वियोग स्वरूप मरण भी नहि देना चाहिये... यहां जानो कि- यहां कोई दोष नहि है... क्योंकि- यह आर्यों का वचन है... पहले आगम के भाव को जानकर एक एक प्रावादुक याने कुमतवालों को पुडुंगा किआपको साता इष्ट है कि- दुःख याने असाता ? अर्थात् अच्छी तरह से समझ रहे ऐसे उन कुमतवालों को ऐसा कहें कि- सभी प्राणीगण, सभी भूत, सभी जीव एवं सभी सत्त्वों को असाता अपरिनिर्वाण महाभय एवं दुःख स्वरूप है... ऐसा मैं कहता हुं... // 146 // IV टीका-अनुवाद : इस मनुष्य लोक में जो कोइ श्रमण याने पाखंडी साधु, तथा ब्राह्मण याने द्विजलोग
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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