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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 4 - 2 - 3 (145) 325 IV टीका-अनुवाद : * धर्म का स्वरूप कहने पर सुननेवाले जीव कोइक कारण से आर्तध्यानवाले हो तो भी चिलातीपुत्र की तरह उन्हे योग्य धर्म कहते हैं तथा विषयभोगों की आसक्ति से प्रमादी ऐसे शालीभद्र आदि जैसे को भी धर्म कहतें हैं... ऐसे आर्त्त-दुःखी एवं प्रमादी जीव भी तथाविध कर्मो के क्षयोपशम से धर्म का स्वीकार करतें हैं, अतः उन्हें धर्म कहतें हैं... अथवा तो आर्त याने दुःखी तथा प्रमत्त याने भोगोपभोग-समृद्धि में मग्न ऐसे जीव भी जो धर्म का स्वीकार करते हैं, तो फिर अन्य जीव तो धर्म का स्वीकार करेंगे हि... ___अथवा राग एवं द्वेष के उदय से आर्त्त-दुःखी तथा विषय भोगों की कामना से प्रमत्त... ऐसे गृहस्थ... संसार स्वरूप अटवी में निवास करनेवाले ऐसे भव्य-प्राणीगण, हे जिनेश्वर ! ज्ञेय को जाननेवाले एवं करुणालु ऐसे आपके धर्मोपदेश से राग-द्वेष एवं विषयाभिलाष का विच्छेद करने के लिये क्यों समर्थ न हो ? अर्थात् समर्थ होते हि हैं... यह बात आप श्रोताजन जुठी न मानें... किंतु यह जो मैं सुधर्मस्वामी आप को कह रहा हूं वह यथातथ्य याने संपूर्ण सत्य हि है... अतः अति दुर्लभ ऐसे सम्यक्त्व तथा चारित्र के परिणामों को प्राप्त करके हे भव्य ! साधुजन ! पंचाचार में कभी भी प्रमाद न करें... . हां ! आपकी बात ठीक है, किंतु प्रमाद का त्याग करने के लिये किसका आलंबन लें ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि- इस संसार के मध्यभाग में रहे हुए किसी भी जीव को मृत्यु के मुख में नहि जाना ऐसा नहि है, अर्थात् सभी जीवों को कालक्रम से मृत्यु निश्चित ही है... ___अन्यत्र भी कहा है कि- इस संसार में निरंतर भोगोपभोग के लिये सेंकडों प्रयत्न करनेवाले भी मनुष्य क्या भरण की व्यथा याने पीडा नहिं पातें है ? मात्र मनुष्य हि नहि, किंतु देव-देवेन्द्र असुर असुरेन्द्र तथा किन्नर और किन्नरेन्द्र भी कृतांत याने यमराजा के दांत स्वरूप वज्र के आक्रमण से भेदे जाते हैं... अर्थात् बच नहि शकतें... क्योंकि- मृत्यु को निवारण करने का संसार में कोई उपाय भी नहि है... मान लो की मरण से डरनेवाला कोई प्राणी मरणसे बचने के लिये नश्यति याने भाग जाय, नौति याने नमस्कार करे, याति याने यम के शरण में जाय, वितनोति याने बचने के उपाय करे, तथा रसायण आदि का सेवन करे, बडे-बडे व्रत-नियमो का आचरण करे, या पर्वत की गुफाओं में छुप जाय... अथवा तपश्चर्या करे, तुच्छ असार प्रमाणोपेत भोजन करे या मंत्रसाधना करे तो भी कृतांत याने यमराजा के दांत स्वरूप करवत के यंत्र से क्रमशः भेदा
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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