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________________ 326 1 - 4 - 2 - 3 (145) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन जाता हि है... तथा जो लोग विषय एवं कषायों के अभिष्वंग (अनुराग) से प्रमादी हैं; अत: धर्म को समझने में समर्थ नहि होते... ऐसे वे लोग पांच इंद्रियां एवं मन के विषयों को अनुकूल प्रवृत्ति स्वरूप इच्छा से विषयाभिमुख अथवा कर्मबंध के अभिमुख अथवा संसार की अभिमुखता को पाये हुए अर्थात् संसार में हि परिभ्रमणा करनेवाले, तथा वक्र याने असंयम की मर्यादा में रहे हुए, तथा काल याने मृत्यु के मुख में रहे हुए अर्थात् संसारी-प्राणीगण बार बार मरण को पानेवाले होते हैं... अथवा कितनेक लोग धर्माचरण के लिये काल का अभिसंधान (ग्रहण) करतें हैं जैसे कि- पिछली (छेल्ली) उम्र में अथवा पुत्र-पुत्रीओं के परिणयन याने सादी-विवाह के बाद हम धर्म करेंगे... किंतु यह सभी चिंताए पुरी करते करते हि वे लोग कालग्रहीत होते हैं... ऐसे लोग कर्मो के निचय याने समूह में अथवा कर्मो के बंध के कारण सावध आरंभ-समारंभ (पापाचरण) में हि तन्मय बने रहते हैं... इस प्रकार इच्छाप्रणीत, वंकानिकेत, कालग्रहीत और निचय में निविष्ट ऐसे लोग भिन्नभिन्न प्रकार के एकेंद्रिय बेइंद्रिय आदि में अनेक बार जन्म-मरण करतें हैं अथवा यहां पाठांतर है कि- इस इच्छाप्रणीत आदि में तथा अनुकूल इंद्रियो के विषयों में अथवा मोहनीय कर्म में डूबे हुए कामभोगासक्त प्राणी बार बार एकेंद्रियादि में जन्म धारण करते हैं... अतः उनका संसार से छुटकारा होना मुश्केल होता है... . यदि संसार के छुटकारा न हो, तो उन प्राणीओं का क्या होता है ? इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 3 // // 145 // 1-4-2-3 इहमेगेसिं तत्थ तत्थ संथवो भवइ, अहोववाइए फासे पडिसंवेयंति। चिट्ठ कम्मेहिं कूरेहिं चिढं परिचिट्ठइ, अचिट्ठ कूरेहिं कम्मेहिं नो चिटुं परिचिट्ठइ। एगे वयंति अदुवा वि नाणी, नाणी वयंति अदुवा वि एगे // 145 // // संस्कृत-छाया : __ इह एकेषां तत्र तत्र संस्तवः भवति / अधः औपपातिकान् स्पर्शान् प्रतिसंवेदयन्ति। भृशं क्रूरैः कर्मभिः भृशं परितिष्ठति। अभृशं क्रूरैः कर्मभिः न भृशं परितिष्ठति / एके वदन्ति अथवा अपि ज्ञानिनः, ज्ञानिनः वदन्ति अथवाऽपि एके // 145 //
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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