________________ 324 // 1 - 4 - 2 - 3 (145) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हिंसक मानव प्रबुद्ध मुनि का संकेत पाकर अपने जीवन को बदलने में देर नहीं करते। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि- अत्यन्त दुःखी एवं अत्यधिक साता-समृद्धिवाला तथा मध्यम अवस्था के सभी पुरुष धर्मोपदेश के अधिकारी हैं। इसलिए प्रबुद्ध मानव प्रत्येक जीव को धर्मोपदेश देते रहते हैं। वह इस प्रकार-संसार में कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है, जो मृत्यु को प्राप्त नही करता हो, अर्थात् शरीर को धारण करनेवाले सभी प्राणी आयुष्य पूर्ण होते हि मरण पातें हैं। संसारी जीव जब तक घातिकर्मों का क्षय नहीं कर लेता है, तब तक जन्ममरण के प्रवाह में बहता रहता है; इसलिए मानव को कर्म क्षय करने का प्रयत्न करना चाहिए। जो व्यक्ति विषय-वासना में आसक्त रहता है, दैहिक एवं भौतिक भोगोपभोगों को बटोरने में व्यस्त रहता है; वह पाप कर्म का बन्ध करता हैं और परिणाम स्वरूप एकेन्द्रिय आदि विभिन्न जातियों में परिभ्रमण करता है। इसलिए साधक को विषयेच्छा का त्याग करके पंचाचार के द्वारा संयम का परिपालन करना चाहिए। विषयासक्त जीव सदा-सर्वदा दुःखों का संवेदन करते रहते हैं; अतः वे प्राणी किस प्रकार की वेदना एवं दु:खों का संवेदन करते हैं। यह बात सूत्रकार महर्षि सूत्रांक 145 से कहेंगे... I पाठांतर सूत्र // 2 // // 144 // 1-4-2-2 “आघाइ धम्म खलु से जीवाणं, तं जहा- संसारपडिवण्णाणं माणुसभवत्थाणं आरंभविणईणं दुक्खुव्वे असुहेसगाणं धम्मसवणगवेसयाणं सुस्सूसमाणाणं पडिपुच्छमाणाणं विण्णाणपत्ताणं" . II संस्कृत-छाया : आख्याति धर्म खलु सः जीवानां, तद् यथा-संसारप्रतिपन्नानां मानुषभवस्थानां आरम्भविनयिनां दुःखोद्वेगसुखैषकानां धर्मश्रवणगवेषकानां शुश्रूषमाणाणां प्रतिपृच्छतां विज्ञानप्राप्तानाम्। III सूत्रार्थ : ___ वह ज्ञानी पुरुष निश्चित हि जीवों को धर्म कहता है... वे जीव कैसे हैं ? संसार में रहे हुए है... मनुष्य जन्म पाये हुए है... आरंभ के त्यागवाले है... दु:खों से उद्विग्न और सुख की शोध करनेवाले है... धर्मश्रवण के लिये सदा तत्पर, धर्म को सुननेवाले, सुने हुए धर्म का स्पष्ट भाव आत्मा में स्थिर करने के लिये प्रतिपृच्छा (प्रश्न) करनेवाले एवं तत्त्वविज्ञान को पाये हुए है... ऐसे मुमुक्षु जीवों को धर्म कहतें हैं...