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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 4 - 2 - 2 (144) 323 मृत्यु का अनागम नहि है, अर्थात मृत्यु निश्चित हि है... तो भी कितनेक इच्छा से प्रेरित हुए, वक्र याने असंयम में रहे हुए तथा काल याने मृत्यु से ग्रहण कीये हुए एवं निचय याने पापाचरण में आसक्त प्राणीगण भिन्न भिन्न एकेंद्रिय आदि जाति में जन्म धारण करते रहते हैं... // 144 / / IV टीका-अनुवाद : सकल पदार्थों के स्वरूप को प्रगट करनेवाला ज्ञान जिस कीसी के पास है वह ज्ञानी... ऐसे ज्ञानी पुरुष यहां मनुष्यों को कहते हैं किप्रश्न- मनुष्यों को हि क्यों कहतें हैं.? उत्तर- क्योंकि- मनुष्य हि सर्वसंवर स्वरूप चारित्र के लिये योग्य है... ___ अथवा “मनुष्य" कहने से उपलक्षण से देव आदि को भी कहते हैं... यहां केवलज्ञानी सर्वज्ञ को उपदेश देने की आवश्यकता न होने से कहते हैं कि- चार-गति स्वरूप संसारचक्र में रहे हुए... क्योंकि- केवलज्ञानी के चार घातिकर्म क्षय हो चुके हैं; अतः अब उन्हे संसारचक्र में भ्रमणा (आवागमन) नहि है... संसारी जीवो में भी जो,जीव धर्म को प्राप्त करने की योग्यता रखते हैं, उन्हें हि उपदेश देते हैं... जैसे कि- बीसवे तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतस्वामीजी एक घोडे के आत्मा को प्रतिबोध करने के लिये भरुच नगर में पधारे थे... - तथा संबुद्धयमान याने कहे जानेवाले धर्म को अच्छी तरह से समझनेवाले मनुष्यों को उपदेश देते हैं... अब छद्मस्थ साधु यह तो नहि जानतें कि- यह मनुष्य प्रतिबोध पाएगा हि... इस स्थिति में कहते हैं कि- "विज्ञानप्राप्त" याने हित की प्राप्ति एवं अहित के त्यागवाला जो अध्यवसाय वह विज्ञान... ऐसे विज्ञान की प्राप्तिवाले अर्थात् सभी पर्याप्तिओं से पर्याप्त ऐसे संज्ञी मनुष्य-लोगों को धर्मोपदेश देते हैं... यहां नागार्जुनीय-संप्रदायवाले आचार्यजी निम्नोक्त पाठांतर सूत्र कहते हैं... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- प्रबुद्ध साधु हि आर्त्त-दुःखी एवं प्रमादी जीवों को संयम-साधना में संलग्न रहने के लिए सदा प्रेरित करता रहता है। परन्तु साथ में यह भी बता दिया है कि- उपदेश का प्रभाव उन्हीं जीवों पर पड़ता है, जो ज्ञान-विज्ञान से युक्त है। वस्तुतः आत्म-स्वरूप को जानने या जानने की जिज्ञासा रखने वाले व्यक्ति ही उपदेश को सुनकर आचरण में ला सकते हैं। कभी कभी परिस्थितिवश उत्तम व्यक्ति भी भटक जाते हैं, परन्तु फिर से निमित्त मिलने पर वे साधना के पथ पर चल पड़ते हैं। जैस कि- चिलायति पुत्र जैसे
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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