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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 4 - 1 - 3 (141) 311 जं एवं परिकहिज्जइ, समेमाणा पलेमाणा पुणो पुणो जाई पकप्पंति // 141 // // संस्कृत-छाया : यस्य नास्ति एषा जातिः, तस्य अन्या कुतः स्यात् ? दृष्टं श्रुतं मतं विज्ञातं यत् एतत् परिकथ्यते / शाम्यन्तः प्रलीयमानाः पुनः पुनः जाति प्रकल्पयन्ति // 141 // III * सूत्रार्थ : जिस साधु को यह लोकैषणा-बुद्धि नहि है, उसको अन्य पापबुद्धि भी कैसे हो ? देखा हुआ, सुना हुआ, माना हुआ, एवं जाना हुआ है कि- जो मैं यह कहता हुं... किंतु जो प्राणी ऐसे नहि है; वे शब्दादि विषयों में आसक्त एवं लीन होते हैं; वे बार बार एकेंद्रियादि जातिओं जन्म धारण करतें हैं... // 141 / / IV टीका-अनुवाद : जिस मुमुक्षु साधु को यह राग-द्वेषवाली लोकैषणा की बुद्धि नहि है, उसको अन्य याने सावध अर्थात् पापवाले आरंभ-समारंभों में प्रवृत्ति कैसे हो ? अर्थात् नहिं होती... यहां सारांश यह है कि- कामभोग की इच्छा स्वरूप लोकैषणा का त्याग करनेवाले साधुओं को सावध-अनुष्ठान में प्रवृत्ति नहि होती... अथवा तो अनंतर में कही गइ प्रत्यक्ष सम्यक्त्व की ज्ञप्ति याने ज्ञान... की विद्यमानता में विशुद्ध सम्यक्त्ववाले साधुओं को कुमार्ग तथा सावद्य अनुष्ठान का त्याग होने से अविवेकवाली पापबुद्धि भी कहां से हो ? तथा शिष्य की सन्मति को स्थिर करने के लिये और भी कहते हैं कि- यह जो मैं कह रहा हु; वह सर्वज्ञ प्रभुजीने केवलज्ञान के प्रकाश में देख कर कहा है... तथा शुश्रूषा वाले सज्जनों ने सुना है... तथा लघुकर्मवाले भव्यजीवों को मान्य है... तथा ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के द्वारा विशेष प्रकार से मैंने जाना है... इसलिये हे शिष्य ! आप भी मैंने कहे हुए सम्यक्त्व आदि में प्रयत्न कीजीयेगा... तथा जो प्राणी धर्मोपदेश का आचरण नहिं करतें वे दश दृष्टांत से दुर्लभ इस मनुष्य जन्म में भी कामभोग-भोगोपभोगों की आसक्ति के कारण से पुद्गलपदार्थों के लिये प्रयत्न करते हैं तथा मनोज्ञ याने अच्छे = इंद्रियों के इष्ट शब्दादि पदार्थों में लीन होकर एकेंद्रिय, बेइंद्रिय आदि जाति में बार बार जन्म धारण करते करते संसार को अनंत बनाते हैं... हां ! यदि अविदितवेद्य याने मिथ्यादृष्टि जीव अज्ञानता के कारण से अज्ञानता के कारण से मात्र वर्तमानकाल को हि देखनेवाले होते हैं और जहां जन्म लिया हो; वहां इंद्रियों के
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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