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________________ 312 // 1 - 4 - 1 - 4 (142) प्र श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अर्थ याने विषय-पदार्थों में लीन होकर बारबार संसार में जन्म धारण करतें हैं, तो अब हमे क्या करना चाहिये ? इस प्रश्न का उत्तर आगे के सूत्र में स्वयं सूत्रकार महर्षि कहेंगे... V सूत्रसार : - विषयेच्छा से मन में पाप भावना उबुद्ध होती है। और उस तृष्णा एवं आकांक्षा को पूरी करने के लिए मनुष्य आरम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त होता है। किंतु जिस व्यक्ति के मन में भोगेच्छा नहीं होती है, विषयों की तृष्णा एवं आकांक्षा नहीं रहती है; उसके मन में पाप भावना भी नहीं जागती और परिणाम स्वरूप वह सावध कार्य में प्रवृत्त नहीं होता। इससे स्पष्ट है कि- लोकेषणा, विषयेच्छा ही पाप एवं सावध कार्य का कारण है। ऐसा सर्वज्ञ भगवान ने देखा-जाना है। सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट होने के कारण इस मार्ग में सन्देह का अवकाश हि नहीं है। अतः साधक को लोकेषणा का सर्वथा त्याग करना चाहिए। जो व्यक्ति विषयेच्छा का त्याग नहीं करते, एवं रात-दिन भोगों में आसक्त रहते हैं, वे पाप कर्मों का बन्ध करते है और परिणाम स्वरूप एकेन्द्रिय आदि योनियों में परिभ्रमण करते रहते हैं। इस प्रकार वे दुःख के प्रवाह में बहते रहते हैं। संसार की यथार्थ स्थिति को जानकर मनुष्य को इन दुःखों से छुटकारा पाने के लिए प्रयत्न-पुरुषार्थ करना चाहिए। किंतु यहां प्रश्न हो सकता है कि- किस प्रकार का प्रयत्न करे ? इस का समाधान करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 142 // 1-4-1-4 अहो अ राओ अ जयमाणे धीरे, सया आगयपण्णाणे प्रमत्ते बहिया पास, अप्पमत्ते सया परक्कमिज्जासि त्तिबेमि // 142 / / II संस्कृत-छाया : ____अहश्च रात्रिं च यतमानः धीरः सदा आगतप्रज्ञानः, प्रमत्तान् बहिः पश्य / अप्रमत्तः सदा पराक्रमेथाः। इति ब्रवीमि // 142 // III सूत्रार्थ : दिन एवं रात सदा सद् एवं असद् के विवेकवाले तथा यतनावाले हे धीर साधु ! धर्म से बहार रहे हुए प्रमत्त (प्रमादी) लोगों को देखो ! तथा उनके प्रमाद को देखकर सदा अप्रमत्त होकर मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ करो ! ऐसा मैं (सुधर्मास्वामी) तुम्हें कहता हुं // . 142 // IV टीका-अनुवाद :
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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