________________ 310 1 - 4 - 1 - 3 (141) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है वैसा हि धर्म को जानकर दृष्ट वस्तु-पदार्थों से निर्वेद (विराग) प्राप्त करें... तथा लोक की एषणा को न आचरें... || 140 // IV टीका-अनुवाद : ___ तत् याने तत्त्वार्थ के श्रद्धान स्वरूप सम्यग्दर्शन को प्राप्त करके तथाविध संसर्ग आदि निमित्तों से मिथ्यात्व का उदय होवे तो भी जीव के सामर्थ्य विशेष से सम्यग्दर्शन का विनाश न होने दें... जैसे कि- शैव तथा शाक्य आदि कुमतवालों को देखकर मोहमुग्ध न होवें... अर्थात् अहिंसादि व्रतों का त्याग करके उत्प्रव्रजन याने साधुपने का त्याग न करें... ___ तथा जैसा है वैसा हि श्रुत एवं चारित्र स्वरूप धर्म को जानकर के, अथवा वस्तुपदार्थों के धर्म याने स्वभाव को जानकर इष्ट एवं अनिष्ट वस्तु-पदार्थो से निर्वेद याने विरक्ति करें... जैसे कि- सुने हुए शब्द, स्वाद लिये हुए रस, नासिका से सुंघे हुए गंध एवं स्पर्श कीये हुए स्पर्श की उपस्थिति में ऐसा सोचें कि- इन पुद्गल-पदार्थों में शुभ एवं अशुभता पूरण तथा गलन से होती है, क्योंकि- पुद्गल पदार्थों में पूरण एवं गलन होना सहज हि है... अतः उनमें राग एवं द्वेष क्यों करूं ? अर्थात् लोक की एषणा याने इष्ट शब्दादि पदार्थों में रागवाली प्रवृत्ति तथा अनिष्ट शब्दादि पदार्थों में द्वेषवाली प्रवृत्ति कभी भी न करें... . जिस मनुष्यों को ऐसी लोकेषणा नहि है, उसको अशुभ मति नहि होती है, यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में अहिंसा में निष्ठा-श्रद्धा रखने वाले व्यक्ति को स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि- वह अपनी तत्त्व श्रद्धा को दृढ़ बनाने एवं उसके अनुरूप पंचाचार का आचरण करने में लगावे। सम्यकत्व को विशुद्ध रखने में कभी भी शक्ति-सामर्थ्य का गोपन न करे और सम्यक्त्व के शंकादि अतिचारों-दोषों से बच कर रहना चाहिए। क्योंकि- लोकेषणा भी अध्यात्म जीवन में विघ्नभूत है। लोकेषणा से यहां पुत्र, धन, काम-भोग, विषय-वासना, विलासता आदि की इच्छा-कामना समझनी चाहिए। और यह विषयेच्छा कर्म-बन्ध एवं दुःखों की परम्परा को बढ़ाने वाली है। अतः मुमुक्षु को लोकेषणा से निवृत्त होना चाहिए। जिस व्यक्ति के जीवन में लोकेषणा नहीं होती, उस के मन में कुमति भी नहीं होती है। यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र कहते हैं..... I सूत्र // 3 // // 141 // 1-4-1-3 जस्स नत्थि इमा जाई, अण्णा तस्स कओ सिया ? दिटुं सुयं मयं विण्णायं