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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी- टीका 1 - 3 - 4 - 5 (138) म 293 उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स, आयाणं निसिद्धा सगडब्भि, किमत्थि ओवाही पासगस्स ? न विज्जइ ? नत्थि त्ति बेमि // 138 // II संस्कृत-छाया : यः क्रोधदर्शी स: मानदर्शी, य: मानदर्शी स: माया-दर्शी, य: मायादर्शी सः लोभदर्शी, य: लोभदर्शी स: प्रेमदर्शी, य: प्रेमदर्शी सः दोषदर्शी, य: दोषदर्शी सः मोहदर्शी, य: मोहदर्शी सः गर्भदर्शी, य: गर्भदर्शी स: जन्मदर्शी, यः जन्मदर्शी सः मारदर्शी, य: मारदर्शी सः नरकदर्शी, य: नरकदर्शी सः तिर्यग्-दर्शी, यः तिर्यग्दर्शी सः दुःखदर्शी। स: मेधावी अभिनिवर्तयेत् क्रोधं च मानं च मायां च लोभं च प्रेमं च दोषं च, मोहं च गर्भ च जन्म च मारं च नरकं च तिर्यञ्चं च दुःखं च / एतत् पश्यकस्य दर्शनम् / उपरतशस्त्रस्य पर्यन्तकरस्य आदानं निषेध्य स्वकृतभित्। किमस्ति उपाधिः पश्यकस्य ? न विद्यते ? नाऽस्ति इति ब्रवीमि // 138 / III सूत्रार्थ : जो क्रोध को देखता है वह मान को देखता है जो मान को देखता है वह माया को देखता है जो माया को देखता है वह लोभ को देखता है जो लोभ को देखता है वह प्रेम को देखता है जो प्रेम को देखता है वह दोष को देखता है जो दोष को देखता है वह मोह को देखता है जो मोह को देखता है वह गर्भ को देखता है जो गर्भ को देखता है वह जन्म को देखता है जो जन्म को देखता है वह मरण को देखता है जो मरण को देखता है वह नरक को देखता है जो नरक को देखता है वह तिर्यंच को देखता है जो तिर्यंच को देखता है वह दुःख को देखता है वह मेधावी मुनी क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, दोष, मोह, गर्भ, जन्म, मरण, नरक, तिर्यंच और दुःख को दूर करे... यह पश्यक याने केवलज्ञानी का दर्शन है वे उपरतशस्त्र हैं और पर्यंतकर भी है... आदान का निषेधकर के स्वकृत कर्मो का भेदन करते हैं... क्या पश्यक को उपाधि होती है ? या नहि होती ? ना, पश्यक याने सर्वज्ञ-परमात्मा को उपाधि नहि है...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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