________________ 292 // 1 - 3 - 4 - 5 (138) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन होते। फिर भी उनका लक्ष्य संपूर्ण कर्म क्षय करने का होता है अतः वे जन्मांतर में भी उसी श्रेणी के क्रम से उस लक्ष्य तक पहुंचने का प्रयत्न करते हैं। इसलिए कहा गया है कि- मोक्षाभिलाषी साधक श्रद्धानिष्ठ होकर संयम मार्ग पर चलता है और जिनेश्वर परमात्मा की आज्ञा के अनुसार संयम साधना में प्रवृत्त होता है। अर्थात् पृथ्वीकायादि 6 काय जीवों के आरम्भ-समारम्भ तथा कषाय से बढ़ने वाले संसार परिभ्रमण को जानकर किसी भी जीव को त्रास एवं भय नहीं देता। वह प्रत्येक प्राणी को अपनी आत्मा के समान जानता है। क्योंकि- दूसरे प्राणी को कष्ट देना अपनी आत्मा को कष्ट देना है, ऐसा जानकर वह भी जीवों को अभयदान देता है। असंयम सभी जीवों के लीये भयंकर शस्त्र है। क्योंकि- असंयम जीवन में एकरूपता नहीं रहती। अपने वैषयिक भोगोपभोग की प्रमुखता के कारण असंयत-जीव दूसरे जीवों पर समदृष्टि नहिं रख शकता, अतः असंयत जीव अपने विषय-भोगों के लिए द्रव्य एवं भाव शस्त्रों को तीक्ष्ण बनाता रहता है। अस्थि शस्त्र युग से लेकर अणुबम एवं हाईड्रोजन बम तक का इतिहास असंयम की विषाक्त. भावना का परिणाम है। इसी प्रकार क्रोध, मान, माया; लोभ एवं राग-द्वेष आदि भाव शस्त्रों में भी असंयतता के कारण से तीव्रता आती रहती है। संयम अशस्त्र हैं, उसमें द्रव्य एवं भाव दोनों प्रकार के शस्त्रों का अभाव है। साधक समभाव की दृष्टि लेकर आगे बढ़ता है। इसलिए उसमें तरतमता नहीं पाई जाती है। वह शस्त्र से दूर रहता हुआ; सदा मोक्षमार्ग में आगे बढ़ता रहता है। उसकी संयम-साधना की पूर्णता चौदहवें गुणस्थान में होती है। इस प्रकार संयम निष्ठ साधक गुण श्रेणी का विकास करता हुआ अपने अंतिम साध्य को सिद्ध कर लेता है। साधक कषाय के यथार्थ स्वरूप को जानता है। जिस प्रकार वह क्रोध के स्वरूप एवं परिणाम से परिचित है उसी प्रकार मान के एवं अन्य कषायों के स्वरूप से भी परिचित है। इसी बात को बताते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 5 // // 138 // 1-3-4-5 जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायादंसी, जे मायादंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पिज्जदंसी, जे पिज्जदंसी से दोसदंसी, जे दोसदंसी से मोहदंसी, जे मोहदंसी, से गन्भदंसी, जे गब्भदंसी से जम्मदंसी, जे जम्मदंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से नरयदंसी, जे नरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी से मेहावी अभिनिवट्टिज्जा कोहं च माणं च मायं च लोभं च पिज्जं च, दोसं च मोहं च गन्भं च जम्मं च मारं च नरयं च तिरियं च दुक्खं च। एयं पासंगस्स दंसणं,