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________________ 294 // 1 - 3 - 4 - 5 (138) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ऐसा मैं सुधर्मास्वामी हे जंबू ! तुम्हें कहता हुं // 138 / / IV टीका-अनुवाद : जो साधु क्रोध को अनर्थकारी एवं त्याग करने योग्य जानता है वह उसका त्याग भी करता है.. अथवा जो क्रोध के स्वरूप को देखकर त्याग करता है वह मान के स्वरूप को भी देखकर त्याग करता है इसी प्रकार माया... लोभ... यावत् दुःख पर्यंत जानीयेगा... इस प्रकार मेधावी मुनी क्रोध मान यावत् दुःख को दूर करे... अपनी मनीषिका के परिहार के लिये शास्त्रकार महर्षि कहतें हैं कि- इस उद्देशक की सभी बातों पश्यक याने तीर्थंकर प्रभु के अभिप्राय स्वरूप है वे सर्वथा उपरतशस्त्र हैं और पर्यंतकर भी हैं... तथा वे आदान याने कर्मो के आश्रव का निषेध करके स्वकृत पुराने कर्मो का भेद करते है... क्या पश्यक को उपाधि याने द्रव्य से सुवर्ण आदि तथा भावसे आठ प्रकार के कर्म स्वरूप दो प्रकार की उपाधि होती है ? या नहि ? ना, नहि होती... अर्थात् पश्यक सर्वज्ञ मुनी को दो प्रकार की उपाधि नहि होती... इस प्रकार श्रीमद् महावीर प्रभुजी के चरणारविंद की उपासना करते हए जो कुछ मैंने सुना है, वह हे जंबू ! मैं सुधर्मास्वामी, तुम्हें कहता हुं... अर्थात् मैं अपनी मति के विकल्प जनित शिल्प-कलासे नहि कहता हुं... किंतु श्री महावीर प्रभुजी से जो सुना है वह तुम्हें कहता हुं... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में कषायों के कटु परिणाम को बताया गया है। कषाय हि संसार परिभ्रमण एवं दु:ख प्रवाह को बढ़ाने वाले हैं। अतः वह साधु बुद्धिमान है; जो कषायों से निवृत्त हो जाता है। तीर्थंकर भगवान का यही उपदेश है कि- कषायों का क्षय कर के उपाधि रहित बनें... वे परमात्मा असंयम रूप शस्त्र से रहित होते हैं। अतः वे संसार का अन्त करने वाले एवं उपाधि रहित माने गए हैं। जिस वस्तु को ग्रहण किया जाए; उसे उपाधि कहते हैं। वह दो प्रकार की है-१द्रव्य उपाधि और २-भाव उपाधि। स्वर्णादि भौतिक साधन सामग्री को द्रव्य उपाधि कहते हैं और अष्ट कर्म को भाव उपाधि कहते हैं। सर्वज्ञ भगवान में द्रव्यउपाधि तो होती ही नहीं और भाव उपाधि में उन्होंने चार घातिकर्मों का क्षय कर दिया है। एवं अवशिष्ट चार अघाति-कर्म संसार के कारण नहीं बनते। केवल आयु कर्म के रहने तक उनका अस्तित्व मात्र रहता है। इसलिए उन्हें उपाधि रूप नहीं माना गया है। क्योंकि- आयु कर्म के क्षय के साथ शेष तीन कर्मो का भी क्षय करके सर्वज्ञ-प्रभु सिद्ध पद को प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार द्रव्य एवं भाव उपाधि संसार परिभ्रमण का कारण है और उसका परित्याग संसार नाश का कारण है। इसलिए साधक को द्रव्य एवं भाव उपाधि से निवृत्त होने का प्रयत्न
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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