________________ 280 // 1 - 3 - 4 - 9 (134) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हि आत्मा के गुणो का उपघात याने विनाश करता है... क्रोध-कर्म के विपाकोदय से क्रोध होता है... जाति, कुल, रूप, बल आदिसे उत्पन्न होनेवाला गर्व हि मान है... अन्य जीवों को वंचना याने ठगने का अध्यवसाय वह माया... तथा तृष्णा और परिग्रह का परिणाम वह लोभ है... क्षय तथा उपशम के क्रमानुसार हि यहां क्रोधादि के अनुक्रम का विधान कीया है... वह क्रोधादि कषाय भी अनंतानुबंधि, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान एवं संज्वलनादि स्वगत भेद-प्रभेद से अनेक प्रकार के हैं, अतः उनका निर्देश करतें हैं... अनंतानुबंधी क्रोध पर्वत की तिराड के समान है.. अप्रत्याख्यानीय क्रोध पृथ्वी की तिराड के समान है... प्रत्याख्यानीय क्रोध रेत की तिराड के समान है संज्वलन क्रोध जल की तिराड के समान है... अनंतानुबंधी मान पत्थर के थंभे का समान है अप्रत्याख्यानीय मान हड्डी के थंभे के समान है प्रत्याख्यानीय मान लकडी के थंभे के समान है संज्वलन मान बेंत की सोटी (छडी) के समान है... अनंतानुबंधी माया वंश के मूल (जड) के समान है अप्रत्याख्यानीय माया भेड के सिंग के समान है प्रत्याख्यानीय माया गोमुत्र के समान है संज्वलन माया अवलेखक याने लकडी की छोल के समान है... अनंतानुबंधी लोभ कृमिराग याने पक्के रंग के समान है अप्रत्याख्यानीय लोभ कर्दम समान है / प्रत्याख्यानीय लोभ काजल के समान है संज्वलन लोभ हलदी के रंग के समान है... अनंतानुबंधी क्रोधादि कषाय जीवन पर्यंत रहते हैं... नरकगति का हेतु है... अप्रत्याख्यानीय क्रोधादि कषाय एक वर्ष पर्यंत रहते हैं... तिर्यंचगति का हेतु है... प्रत्याख्यानीय क्रोधादि कषाय चार महिने तक रहते हैं... मनुष्यगति का हेतु है... संज्वलन क्रोधादि कषाय एक पक्ष पर्यंत रहते हैं... देवगति का हेतु है... . इस प्रकार के क्रोध, मान, माया, एवं लोभ कषाय के वमन से हि पारमार्थिक याने