________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 3 - 4 - 1 (134) 281 सच्चा श्रमण-भाव आत्मामें प्रगट होता है... अन्यथा कषायों के होने में श्रमण-भाव नहि होता... कहा भी है कि- साधु याने श्रमण जीवन जीनेवाले मुनी को यदि उत्कट याने उग्र कषाय होवे, तो मैं मानता हूं कि- उसका श्रमण जीवन इक्षु के पुष्प की तरह निष्फल हि है... क्योंकि- देशोन (नव वर्ष न्यून) पूर्व क्रोडवर्ष पर्यंत के चारित्र को, कषाय युक्त साधु एक मूहूर्त में हि विनाश करता है... श्री गौतमस्वामीजी कहते हैं कि- यह बात हम अपने मन से नहिं कहतें हैं किंतु अनंतर कहा हुआ कषायों के वमन का उपदेश, पश्यक याने निरावरण ज्ञानवाले अर्थात् केवलज्ञानी श्री वर्धमान स्वामीजी ने यथावस्थित वस्तुतत्त्व को देखकर हि कहा है... वह उपदेश हम तुम्हें अनुग्रहभाव से कहते हैं... वे वर्धमानस्वामीजी द्रव्य एवं भाव शस्त्रारंभ से उपरत याने निवृत्त हैं... द्रव्यशस्त्र स्वकाय, परकाय एवं उभयकाय स्वरूप है, तथा भावशस्त्र असंयम अथवा कषाय है... अर्थात् तीर्थंकर परमात्मा को भी कषायों के वमन के बिना सकल पदार्थों के सभी पर्यायों को ग्रहण करनेवाला निरावरण केवलज्ञान प्रगट नहि होता, और केवलज्ञान के बिना सिद्धिवधू के समागम के सुख का अभाव होता है... इस प्रकार अन्य मुमुक्षु साधुओं के लिये भी जानीयेगा... अतः परमात्मा के उपदेश अनुसार मोक्षमार्ग में चलनेवालों को कषायों का वमन (त्याग) करना अनिवार्य है... तथा “पर्यंत" याने कर्म अथवा संसार तथा “कर" याने अंतकरनेवाले “पर्यंतकर" परमात्मा हैं अर्थात् जिस प्रकार तीर्थंकर परमात्मा संयम के अपकारी कषाय तथा शस्त्रारंभ से निवृत्त होकर आत्मा में रहे हुए कर्मो का अंत करनेवाले हैं, इसी प्रकार उनके कहे हुए मोक्षमार्ग में चलनवाले अन्य साधु-श्रमण भी ऐसे हि पर्यंतकर होते हैं... . ____ तथा आदान याने आत्म-प्रदेशों के साथ आठ प्रकार के कर्मों का बंधन जिस हिंसादि आश्रवों के द्वारा या अट्ठारह पाप स्थानकों के द्वारा होता है वह आदान... अथवा तो कर्मो की स्थिति में निमित्त होनेवाले कषाय भी आदान हि हैं, अत: उन कषायों का वमन करनेवाला श्रमण हि स्वकृत अनेक जन्मों के कर्मो का विच्छेद करता है... अर्थात् वे “स्वकर्मभिद्" हैं... यहां सारांश यह है कि- जो श्रमण कर्मों के आदान स्वरूप कषाय आदि का निरोध करते हैं, वे हि नये कर्मो के प्रवेश को रोककर अपने कीये हुए पुराने कर्मो का विनाश करतें हैं... अतः स्वकृत कर्मो का भेदन अपने आप को हि करने का है, ऐसी बात यहां कही है... क्या तीर्थंकर प्रभुने भी परकृतकर्मो के क्षय का उपाय नहि जाना ? ऐसा यदि आपका प्रश्न है, तो हम कहते हैं कि- ना, ऐसा नहि है, तीर्थंकर प्रभुजी का ज्ञान सभी पदार्थों की