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________________ 279 श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 3 - 4 - 9 (134) श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 3 उद्देशक - 4 # कषायवमनम् // तृतीय उद्देशक पूर्ण हुआ... अब चौथे उद्देशक का आरंभ करतें हैं, और इनका परस्पर यह संबंध है कि- तृतीय उद्देशक में कहा था कि- पापकर्म न करने मात्र से और दुःखों को सहन करने मात्र से हि मनुष्य श्रमण नहि हो शकता, किंतु निष्प्रत्यूह याने द्वन्द्व आदि दोष रहित संयमानुष्ठान से हि श्रमण होता है... और निष्प्रत्यूहता तो कषायों के वमन से हि होती है, अतः अब पहले उद्देशक के अधिकार में जो निर्दिष्ट कीया था वह बात अब यहां कहतें हैं... इस संबंध से आये हुए इस चौथे उद्देशक के सूत्र का सूत्रानुगम में आने पर उच्चार करना चाहिये... और वह सूत्र निम्न प्रकार का है... I सूत्र // 1 // // 134 // 1-3-4-1 से वंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च, एयं पासगस्स दंसणं, उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स, आयाणं सगडब्भि // 134 // II संस्कृत-छाया : स: वमिता क्रोधं च मानं च मायां च लोभं च, एतद् पश्यकस्य दर्शनम्, उपरतशस्त्रस्य पर्यन्तकरस्य, आदानं स्वकृतभित् // 134 // III सूत्रार्थ : ज्ञानादि से सहित वह साधु क्रोध मान माया एवं लोभ का वमन करता है... यह पश्यक याने तीर्थंकर प्रभु का दर्शन याने अभिप्राय है... शस्त्रारंभ से निवृत्त तथा संसार का अंत करनेवाला वह साधु स्वकृत कर्मो का विनाश करता है... // 134 // IV टीका-अनुवाद : सम्यग्ज्ञान आदि से सहित, दुःखमात्र से स्पृष्ट, व्याकुलता से रहित मतिवाला एवं द्रव्य स्वरूप और लोकालोक के प्रपंच से मुक्त वह साधु स्व एवं पर के अपकारी ऐसे क्रोध, मान, माया, एवं लोभ का वमन याने विच्छेद करता है... अर्थात् यथोक्त-संयमानुष्ठान करनेवाला वह साधु क्रोध आदि कषायों का वमन करता है... क्योंकि- क्रोधादि कषाय युक्त आत्मा
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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