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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 3 - 3 - 2/3 (126-127) // 265 है। इसलिए वह साधु मनुष्य-स्त्री एवं देवी के रूप सौंदर्य को देखकर कभी भी काम-वासना के प्रवाह में नहीं बहता है। शब्दादि पांचों विषय मानव को भटकाने वाले हैं। परन्तु उनमें रूप की प्रधानता है। क्योंकि- मानव का मन सौंदर्य को देखकर कभी-कभी पागल हो उठता है, पुद्गलों के रूप को देखते हुए थकान लगने पर भी कुदृष्टि के कारण से चाहता रहता है, क्योंकि- शब्दादि विषयों में रूप अधिक आकर्षक है। परन्तु, इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि- अनर्थ का मूल राग-द्वेष है, अर्थात् रूप के प्रति आसक्ति है। यदि जीवन में राग-द्वेष या आसक्ति नहीं है, तो जीवन के साथ विषयों का सम्बन्ध होने पर भी कर्मबन्ध नहीं होता है। जो समभाव पूर्वक संयम साधना में संलग्न है, उसको पाप कर्म का बन्ध नहीं होता। क्योंकि- वह रूप आदि विषयों में मुग्ध एवं आसक्त नहीं होता। अतः समभाव की साधना ही मुनित्व की साधना है। इस साधना में प्रवर्त्तमान साधक किसी भी प्राणी का छेदन भेदन एवं अवहनन नहीं करता है। अतः अन्य व्यक्ति भी उसका छेदन-भेदन एवं अवहनन नहि करतें... हिंसा में प्रवृत्त होने का कारण राग-द्वेष है। राग द्वेष से निवृत्त व्यक्ति हिंसा में प्रवृत्त नहीं होता, इसलिए वह संसार में परिभ्रमण भी नहीं करता है। किंतु क्रमशः चार गति के आवागमन को समाप्त कर देता है। अतः साधक को गति-आगति के स्वरूप को जानना चाहिए। उसके यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता मुनि ही संसार में गमनागमन के दुःखों से बच सकता है। लोक में चार ‘गति' मानी गई हैं-नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव। संसारी प्राणी अपनेअपने कृत कर्म के अनुसार इन गतियों में गमनागमन करते हैं। इसके अतिरिक्त मोक्ष पांचवीं गति मानी गई है। मनुष्य संयम-साधना के द्वारा मोक्ष में जा सकता है; मोक्ष में जाने के बाद पुनः संसार में आना नहीं होता। क्योंकि- वहां आत्मा की शुद्ध अवस्था रहती है, मोक्ष-गति में जानेवाले जीव को कर्म एवं कर्म जन्य उपाधि नहीं रहती। इसलिए वह फिर से जन्म नहीं लेता। मानव ही उत्कृष्ट संयम-साधना के द्वारा सर्व कर्मों को नष्ट करके मोक्ष गति में जा सकता है। अतः मोक्ष गति मनुष्य भव की अपेक्षा से पांचवी गति मानी गई है। राग-द्वेष से रहित आत्मा को किसी के द्वारा छेदन-भेदन आदि का भय नहीं रहता, क्योंकि- वह स्वयं निर्भय होकर समस्त प्राणी जगत को अभयदान देता है। जो व्यक्ति लोक एवं गति-आगति के स्वरूप को नहीं जानते हैं अथवा जिन्हें यह ज्ञात नहीं है कि- हम कहां से आए हैं ? हमें कहां जाना है ? तथा हमें किस वस्तु की प्राप्ति होगी ? वही व्यक्ति संसार में दुःखों का अनुभव करता है। इसी बात को स्पष्ट करते
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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