________________ 264 // 1 - 3 - 3 - 2/3 (126-127) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 __ अत: संसार में जीवों की आगति एवं गति को जानकर तथा इस संसार में अरघट्ट- . घटी-यंत्र न्याय को भी जानकर, तथा मनुष्य गति में हि मोक्षगति प्राप्ति का सद्भाव है ऐसा देखकर वह मुनी आत्मभाव के अंत याने विनाश के कारण ऐसे राग तथा द्वेष से दूर रहता है, अतः उस मुनी का तरवार आदि से छेद नहि होता है, कुंत याने भाले, बरछी आदि से भेद याने टुकडे नहि होते हैं... तथा अग्नि आदि से जलना नहि होता है तथा नरकगति और नरकानुपूर्वी के द्वारा बार बार वध भी नहि होता है... अर्थात् यहां सारांश यह है कि- राग एवं द्वेष के अभाव में प्राणी सिद्ध बुद्ध मुक्त होता है, और ऐसी मुक्त-दशा में छेदन-भेदनादि का संभव हि नहि है... तथा इस लोक में भी राग-द्वेष के अभाव के कारण से उस मुनी को कोइ भी मनुष्य छेदन, भेदन, आदि दुःख नहिं देते हैं... इस प्रकार आगति एवं गति के परिज्ञान से राग-द्वेष का अभाव होता है, और रागद्वेष के अभाव से छेदन-भेदन आदि संसार के दु:खों का भी अभाव होता है... कितनेक लोग मात्र वर्तमानकाल को हि देखनेवाले होते हैं... वे यह नहि सोचतें किहम कहां से आये हैं...? कहां जाएंगे...? और वहां हमें क्या प्राप्त होगा ? इत्यादि विचारतें नहिं है इसीलिये हि वे संसार में परिभ्रमण का अनुभव करतें है... यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे। V. सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि- जिस साधक के जीवन में समता समभाव है, जो आगम के अनुरूप संयम साधना में संलग्न है और जो इन्द्रिय एवं नो-इन्द्रियमन का गोपन करके अपनी आत्मा में केन्द्रित होता है-आत्मद्रष्टा बनता है, वह हि मुनि है। इससे स्पष्ट है कि- मुनित्व की साधना केवल मुनि-वेश में नहीं, किंतु मुनिवेश के साथ अन्तर्वृत्ति को बदलने में है। जब तक अन्त:करण में विषय-वासना एवं राग-द्वेष की आग प्रज्ज्वलित है; तब तक बाहिर के त्याग एवं मात्र साधु-वेष के धारण का विशेष मूल्य नहीं है। क्योंकिमुनित्व वासना, ममता एवं आसक्ति के त्याग में है, अर्थात् प्रत्येक परिस्थिति में समभाव एवं सहिष्णुता को बनाए रखने में हि मुनित्व है। ___ संयम को सर्वश्रेष्ठ माना गया है क्योंकि- इस की साधना में स्व और पर का हित रहा हुआ है। इसमें किसी भी प्राणी को पीड़ा पहुंचाने, कष्ट देने या मन को आघात पहुंचाने के भाव नहीं रहते। संयमी पुरुष के मन में सब प्राणियों के प्रति समता का भाव रहता है उसकी दृष्टि में विकार एवं वासना नहीं रहती वह मन एवं इन्द्रियों को अपने वश में रखता