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________________ 258 1 - 3 - 3 - 1 (125) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन दर्शन मोहनीय का उपशम... यह सम्यक्त्व की प्राप्ति के लक्षण स्वरूप भावसंधि है... अथवा चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशम स्वरूप भावसंधि को जानकर प्रमाद करना अच्छा नहि है... जैसे कि- कारागृह (केदखाने) में बंध कीये हुए मनुष्य को दिवार या बेडीके छिद्र को प्राप्त करके प्रमाद = आलस करना अच्छा नहि माना है... इसी प्रकार मुमुक्षु मुनी को भी कर्मविवर याने छिद्र को प्राप्त करके एक लव (लगभग एक मिनिट) मात्र भी पुत्र-स्त्री आदि संसार के भोगोपभोगों का व्यामोह याने अनुराग कल्याण कारक नहि है... अथवा तो संधि याने संधान (अनुसंधान) वह भावसंधि याने ज्ञान-दर्शन-चारित्र के अध्यवसाय का अशुभकर्मो के उदय से तुटना (खंडन) होता है, तब पुनः संधान करना याने जब कभी पुन: जोड देना... इस क्षायोपशमिक भावलोक का अर्थात् ज्ञान-दर्शन चारित्र योग्य भावलोक में भावसंधि को जानकर के उसके निरतिचार पालन के लिये प्रयत्न करें... अथवा तो- संधि याने धर्मानुष्ठान का अवसर... उसे जानकर लोक याने जीवों के समूह को दु:ख हो ऐसे पापाचरण अर्थात् कार्य मुनी न करें... किंतु सभी जीवों में अपने आत्मा की तुलना करें... जैसे कि- मुझे सुख इष्ट है एवं दुःख अनिष्ट है, वैसे हि अन्य जीवों को भी सुख प्रिय है, एवं दुःख अप्रिय है... ऐसा देखो... जानो... समझो... इस प्रकार आत्म तुल्य सभी जीवों को समझें क्योंकि- सभी जीव दुःख के द्वेषी हैं और सुख को चाहतें हैं अत: उनका वध न करें तथा विविध प्रकार के शस्त्रों के द्वारा या अन्य जीवों के द्वारा भी प्राणीवध न करवायें... यद्यपि पाखंडी, तापस आदि स्थूल (बडे) जीवों को स्वयं नहिं मारतें, तो भी औद्देशिक एवं सन्निधि आदि के परिभोग-उपभोग की अनुमति देकर, अन्य जीवों के द्वारा प्राणीवध करवातें हैं... इसीलिये कहतें हैं कि- मात्र स्वयं पापाचरण न करने मात्र से हि' श्रमण नहिं हो शकतें हैं... जैसे कि- कितनेक श्रमण परस्पर एक-दुसरे की लज्जा या आशंका को लेकर पापकार्य नहिं करतें... तो अब यहां प्रश्न यह होता है कि- पापाचरण न करने का कारण क्या है ? क्या “मुनि हैं" इस कारण से पापकर्म नहिं करतें ? अथवा तो पापाचरण के यथोक्त निमित्त उपस्थित न होने से पापकर्म नहिं करतें ? हां ! यदि ऐसा है और इतने मात्र से. उसे मुनि कहते हैं... तो अब यहां सूत्र-सिद्धांत कहता है कि- वह सच्चा मुनी नहि है... क्योंकिमुनिभाव का कारण द्रोह के अभाववाला अध्यवसाय हि है... और वह उस मुनि के आत्मा में नहि है... अब यहां शिष्य प्रश्न करतें हैं कि- परस्पर के आशंका से भी “आधाकर्म' आदि का त्याग करनेवाले क्या मुनिभाव को प्राप्त करते हैं या नहि ? आचार्यजी प्रश्न के उत्तर देते हुए कहते हैं कि- पापाचरण को त्याग करनेवाले हे शिष्य ! सुनो... उपाधि स्वरूप हेय =
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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