________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 3 - 3 - 1 (125) // 259 त्याज्य पापाचरण का त्याग हि मुनिभाव का सच्चा कारण है... क्योंकि- शुभ अंत:करण के परिणामवाले व्यापार से हि क्रियानुष्ठान करनेवाले को हि मुनिभाव होता है, अन्यथा याने यदि ऐसा नहि है, तब मुनिभाव भी नहि हो शकता... यह बात यहां निश्चयनय के अभिप्राय से कही है, किंतु व्यवहारनय के अभिप्राय से तो- जो सम्यग्दृष्टि मुनी पांच महाव्रतों को धारण करके, उनके निर्वहन में यद्यपि प्रमाद करे किंतु अन्य समान सामाचारीवाले साधु की लज्जा से एवं आराध्य गुरुजी के भय से, अथवा तो कोइक गौरव से हि आधाकर्म आदि का त्याग करने के साथ साथ पडिलेहण आदि संयम का क्रियानुष्ठान करता है, अथवा तो तीर्थ याने जिनशासन के उद्भासन याने प्रभावना के लिये मासक्षपण तथा आतापना आदि, कि- जिन्हें श्रद्धालु लोगों जानतें-समझते हैं, उन्हें यदि वह मुनी करता है, तो अब यहां ऐसे क्रियानुष्ठानो में उसका मुनिभाव हि कारण है... क्योंकि- उस मुनि के तपश्चर्यादि गुरुनिर्दिष्ट धर्मानुष्ठान (व्यापार) से शुभ अध्यवसाय की प्राप्ति हो शकती है... इस प्रकार शुभ अंत:करण के अभाववाले को भी अपेक्षा से मुनिपने का सद्भाव एवं असद्भाव कहा... तो अब निश्चय से मुनिभाव कैसे हो ? इस प्रश्नका उत्तर सूत्रकार महर्षि आगेके सूत्र से कहेंगे। v सूत्रसार : . द्वितीय उद्देशक में कष्ट सहिष्णुता का उपदेश दिया गया है। साधु को कठिन परीषह उत्पन्न होने पर भी घबराना नहीं चाहिए और कष्ट से विचलित होकर प्राणियों की हिंसा एवं अन्य पाप कार्य भी नहीं करने चाहिएं। अहिंसा की इस विराट भावना को जीवन में साकार रूप देने के लिए आत्मदृष्टि को विशाल बनाने की आवश्यकता है। अपने अंतःकरण में समस्त प्राणियों के हित एवं सुख का साक्षात्कार करना जरुरी है। जो व्यक्ति समस्त प्राणियों की आत्मा को अपनी आत्मा के समान देखता है और यह समझता है कि- प्रत्येक प्राणी जीना चाहते हैं, सुख चाहते हैं, व्याघात एवं दुःखों से बचना चाहते हैं, वही मुमुक्षु व्यक्ति हिंसा आदि दोषों से मुक्त-विमुक्त हो सकता है। अत: हिंसा आदि दोषों से बचने के लिए आत्मद्रष्टा बनना चाहिए। क्योंकि- आत्मा ही हमारे दुःख-सुख का, मुक्ति एवं बन्धन का आधार है। वस्तुतः देखा जाए तो आत्मा ही हमारा मित्र है और शत्रु भी है। अतः जीवन विकास के लिए सहयोगी मित्रों को बाहिर ढूंढने की आवश्यकता नहीं है। मैत्री का अनन्त सागर अपने अन्दर ही लहर-लहर कर लहरा रहा है। उसका साक्षात्कार करने के लिए आवश्यकता इस बात की- है कि- हम अन्तर्द्रष्टा बनें। यह हि बात प्रस्तुत उद्देशक में बताई गई है।