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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-3-3-१(१२५)॥ 257 श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 3 उद्देशक - 3 卐 संयमानुष्ठानम् // दुसरा उद्देशक पूर्ण हुआ... अब तीसरे उद्देशक का आरंश करतें हैं, यहां दुसरे और तीसरे उद्देशक में परस्पर यह संबंध है.कि- दुसरे उद्देशक में “दुःख का स्वरूप और उस दुःखों को समभाव से सहन करना चाहिये' ऐसा कहा था... क्योंकि- संयमानुष्ठान के अभाव में मात्र दुःखों को सहन करनेसे हि श्रमण नहि होता, अथवा संयमानुष्ठान के अभाव में मात्र पाप न करने मात्र से भी श्रमण नहि होता है इत्यादि पूर्वके उद्देशक के अधिकार में निर्दिष्ट जो किया है वह बात अब कहतें हैं... इस संबंध से आये हुए इस उद्देशक के सूत्र को सूत्रानुगम के प्रसंग में संहितादि विधि से शुद्ध उच्चार करना चाहिये... I सूत्र // 1 // // 125 // 1-3-3-1 संधिं लोयस्स जाणित्ता, आयओ बहिया पास, तम्हा न हंता, नवि घायए, जमिणं अण्णमण्ण-वितिगिच्छाए पडिलेहाए न करेइ पावं कम्मं, किं तत्थ मुणी कारणं सिया ? // 125 // II संस्कृत-छाया : * सन्धिं लोकस्य ज्ञात्वा, आत्मनः बहिः पश्य, तस्मात् न हन्ता, न घातयेत्, यदिदं अन्योऽन्य-विचिकित्सया प्रत्युपेक्ष्य न करोति पापं कर्म, किं तत्र मुनिः कारणं स्यात् ? // 125 // III सूत्रार्थ : लोक की संधि को जानकर, आत्मा के बाहर देखो... जीवों का वध न करे, तथा वध न करावे, जो यह अन्योऽन्य की विचिकित्सा को देखकर के पाप कर्म करता नहि है, तो क्या यहां मात्र "मुनी है" यह हि कारण है ? IV टीका-अनुवाद : - संधि द्रव्य एवं भाव भेद से दो प्रकार से है... द्रव्यसंधि याने दिवार-भीत के छिद्र... भावसंधि याने कर्म के छिद्र... अतः उदय में आये हुए दर्शन मोहनीय का क्षय तथा शेष
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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