________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 3 - 2 - 9/10 (123-124) 255 राग के विनाश के लिये कहते हैं कि- अनंतानुबंधि आदि चार प्रकार के लोभ की स्थिति एवं फल=विपाक को देखकर... अर्थात् मिथ्यात्व से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानक पर्यंत की छोटी-बडी स्थिति... तथा अप्रतिष्ठान-नरकावास याने सातवी नरक पर्यंत के महान् दु:ख स्वरूप कर्मविपाक-फल को देखकर क्योंकि- आगमसूत्र में भी कहा है कि- मत्स्य एवं मनुष्य सातवी नरकपृथ्वी में उत्पन्न होते हैं... अर्थात् महालोभवाले वे सातवी नरक में उत्पन्न होते हैं अतः वह वीर मुनि लोभ के कारणभूत प्राणीवध से विरत (निवृत्त) होता है, तथा भावस्रोत याने कर्मबंध के कारणों का अथवा शोक का विच्छेद करता है तथा लघुभूतकामी याने मोक्षमार्ग में गमन करता है, अर्थात् संयमानुष्ठान में प्रवृत्त होता है... और भी अधिक उपदेश देते हुए कहतें हैं कि- बाह्य एवं अभ्यंतर भेद स्वरूप परिग्रह की ग्रंथि को ज्ञ परिज्ञा से जान-समझकर धीर-पुरुष आज हि अर्थात् कालक्षेप किये बिना प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करें... तथा विषयभोगों की आसक्ति स्वरूप संसार के स्रोत याने अनादिकाल के जन्म-मरण स्वरूप प्रवाह को जानकर पांच इंद्रियां एवं मन के दमन के द्वारा संयम पालें... तथा मिथ्यात्व आदि शैवाल से आच्छादित इस संसार स्वरूप द्रह-सरोवर में जीव स्वरूप कच्छुआ धर्मश्रवण, श्रद्धा एवं संयमवीर्य स्वरूप उन्मज्जन को प्राप्त करके... क्योंकि- मनुष्य जन्म के सिवा और कहिं संपूर्ण मोक्षमार्ग के आचरण का संभव हि नहि है... अतः प्राणीओं के पांच इंद्रियां, मनबल, वचनबल एवं कायबल तथा श्वासोच्छ्वास एवं आयुष्य स्वरूप दश प्राणों का उपघात हो ऐसा अनुष्ठान याने आचरण मुनी न करें... “इति” समाप्ति सूचक है तथा “ब्रवीमि” याने मैं सुधर्मस्वामी हे जंबू ! जैसा वीर प्रभु के मुख से सुना है वैसा हि मैं तुम्हें कहता हूं। V सूत्रसार : क्रोध, मान, माया और लोभ आत्मा को संसार में परिभ्रमण कराने वाले हैं। इसलिए इन्हें कषाय कहा गया है। कषाय शब्द कष+आय से बना है। 'कष' का अर्थ है- संसार और आय का अर्थ है- लाभ। जिस क्रिया से संसार की अभिवृद्धि हो उसे कषाय कहते हैं... यह कषाय मोह कर्म के उदय का परिणाम है और सब कर्मों में मोह कर्म को प्रधान माना गया है। अत: साधक को सबसे पहिले कषायों का नाश करना चाहिए। क्योंकि- यह कषाय हि नरक एवं महादुःखों का कारण हैं। इसलिए साधक को कर्म आगमन के भाव स्रोत ऐसे कषायों को मूल से हि नष्ट कर देना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में लोभ को स्पष्ट रूप से नरक का कारण बताया है। क्योंकि- लोभ समस्त गुणों का विनाशक है और छद्मस्थ अवस्था के अन्तिम चरण तक उसका अस्तित्व रहता है। उसका क्षय करने पर ही आत्मा लघुभूत होता है और सर्व घातिकर्मों को क्षय कर के शेष कर्मों का आत्यन्तिक क्षय करने की ओर बढ़ता है और आयुकर्म के क्षय के साथ