________________ 254 // 1 - 3 - 2 - 9-10 (123-124) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन का वैभव भी तुच्छ सा प्रतीत होता है। ऐसे महाऋद्धि वाले एवं ऐश्वर्य सम्पन्न देवों के भोग भी सदा नहीं रहते; तो मनुष्य के लिए अभिमान करने जैसी बात ही क्या है ? इस प्रकार भोगों की असारता, अस्थिरता एवं पूर्ति न होना तथा उनके दुःखद परिणाम को जानकर मुमुक्षु पुरुष विषय-भोगों में आसक्त नहीं होते और वासना से सदा दूर रहते है। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 9 // // 10 // // 123-124 // 1-3-2-9/10 कोहाइमाणं हणिया य वीरे, लोभस्स पासे निरयं महंतं / तम्हा य वीरे विरए वहाओ, छिंदिज्ज सोयं लहुभूयगामी // 123 // गंथं परिण्णाय इहऽज्ज ! धीरे, सोयं परिण्णाय चरिज्ज दंते / . .. उम्मज्ज लद्धं इह माणवेहि, णो पाणिणं पाणे समारभिज्जासि तिबेमि // 124 // संस्कृत-छाया : क्रोधादिमानं हन्यात् च वीरः, लोभस्य पश्य नरकं महान्तम् / तस्मात् च वीरः विरतः वधात्, छिन्द्यात् स्रोतः लघुभूतकामी // 123 // : ग्रन्थं परिज्ञाय इह आर्य ! धीरः, श्रोतः परिज्ञाय चरेत् दान्तः / उन्मज्जेत् लब्ध्वा इह मनुष्येषु, न प्राणिनां प्राणान् समारभेथाः इति ब्रवीमि // .124 / / III सूत्रार्थ : वीर पुरुष क्रोधादि मान का नाश करे, तथा लोभ के फल स्वरूप महान् नरक को देखे... अतः वीर मुनी प्राणीवध से विरत होकर, मोक्षानुगामी वह भावस्रोत याने कर्मबंध के कारणों का तथा शोक का त्याग करे... ग्रंथि को जानकर यहां हे आर्य ! धीर और दांत ऐसे आप संसारस्रोत को जानकर संयम अनुष्ठान का आचरण करें... तथा मनुष्य जन्म में संयमानुष्ठान को प्राप्त करके उद्यम करें किंतु प्राणी के प्राणों का समारंभ याने विनाश न करें इति इस प्रकार मैं (सुधर्मास्वामी) हे जंबू ! तुम्हें कहता हुं // 124 // IV टीका-अनुवाद : क्रोध है आदि जिस में ऐसे क्रोधादि कषाय... तथा जो मापा जाये वह मान... अनंतानुबंधि आदि अर्थात् क्रोध आदि कषायों के माप-प्रमाण... अथवा क्रोध आदि के कारण ऐसा जो मान-गर्व, उसका वीर पुरुष विनाश करे... इस प्रकार द्वेष का विनाश कहकर अब